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Vice President Jagdeep Dhankhar said judiciary should work within constitutional limits and should not interfere in executive ANN


Vice President Jagdeep Dhankhar: भोपाल स्थित राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी में छात्रों और संकाय से बातचीत करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शुक्रवार (14 फरवरी) को संविधान, न्यायपालिका और लोकतंत्र के महत्वपूर्ण पहलुओं पर अपने विचार साझा किए. उन्होंने संवैधानिक सीमाओं, न्यायिक समीक्षा, कार्यपालिका की भूमिका और न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र से जुड़े कई बड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला.

 उपराष्ट्रपति ने सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भागीदारी पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा: “हम किसी भी कार्यकारी नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को कैसे शामिल कर सकते हैं? क्या इसके लिए कोई कानूनी आधार है? यह विधायी प्रावधान कार्यपालिका के न्यायिक निर्णय को स्वीकार करने के कारण अस्तित्व में आया, लेकिन अब समय आ गया है कि इसे पुनः परखा जाए.”

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को अपनी संवैधानिक सीमाओं के भीतर रहकर कार्य करना चाहिए और कार्यपालिका की भूमिकाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.

संवैधानिक सिद्धांत और न्यायिक समीक्षा की सीमाएं
उपराष्ट्रपति ने शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत को लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्य बताया. उन्होंने कहा, “न्यायिक आदेश के द्वारा कार्यकारी शासन एक संवैधानिक विरोधाभास है. लोकतंत्र का समन्वय और सहकारिता पर आधारित होना आवश्यक है.”

उन्होंने कहा कि संविधान संसद को सर्वोच्चता प्रदान करता है, और न्यायिक समीक्षा केवल यह सुनिश्चित करने के लिए होनी चाहिए कि कानून संविधान के अनुरूप हैं. लेकिन संविधान में संशोधन करने का अंतिम अधिकार भारतीय संसद के पास ही होना चाहिए.

संविधान पीठ की स्थिर शक्ति और व्याख्या की सीमा
उन्होंने संविधान पीठ की स्थिर शक्ति पर भी चिंता जताई. उन्होंने बताया कि जब 1990 में केवल 8 न्यायाधीश थे, तब भी संविधान की व्याख्या 5 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाती थी. लेकिन वर्तमान में जब न्यायाधीशों की संख्या चार गुना बढ़ चुकी है, तब भी यह संख्या 5 ही बनी हुई है. उन्होंने कहा कि संविधान संस्थागत सामंजस्य और समन्वय की अपेक्षा करता है और इसकी व्याख्या के नाम पर संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए. न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति केवल निर्णयों के माध्यम से होनी चाहिए

उपराष्ट्रपति ने धनखड़ ने यह भी कहा, “न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति केवल उसके निर्णयों के माध्यम से होनी चाहिए. निर्णय अपने आप में बोलते हैं और इनमें ही न्यायपालिका की गरिमा निहित होती है.” उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को अन्य किसी भी प्रकार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बचना चाहिए, जिससे इसकी संस्थागत गरिमा कमजोर हो सकती है.

मूलभूत संरचनात्मक सिद्धांत पर बहस और लोकतंत्र की अवधारणा
धनखड़ ने मूलभूत संरचनात्मक सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) पर भी अपनी बात रखी. उन्होंने पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के संसद में दिए गए बयान का हवाला देते हुए कहा, “कानून मेरे अनुसार नहीं हो सकता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह मनमाना है. क्या यह संविधान के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करता है?” उन्होंने कहा कि संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत अत्यधिक विवादास्पद है और इसे पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है.

लोकतंत्र में संवाद और विचार-विमर्श का महत्व
उपराष्ट्रपति ने लोकतंत्र में संवाद और विचार-विमर्श को सबसे महत्वपूर्ण बताया. उन्होंने कहा, “लोकतंत्र केवल चुनावों से परिभाषित नहीं होता, बल्कि यह अभिव्यक्ति और संवाद का अधिकार भी देता है. विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना लोकतंत्र की आत्मा है.” उन्होंने यह भी कहा कि मतभेदों को संघर्ष में नहीं बदलना चाहिए, बल्कि उन्हें समन्वय और सहकारिता से सुलझाया जाना चाहिए.

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