southern states reasons for wary of delimitation influence decrease Representation of north india goes strong
Delimitation: साल 2026 अब ज्यादा दूर नहीं है. यही कारण है कि परिसीमन की चर्चाएं जोर पकड़ रही है. ऐसा इसलिए है क्योंकि साल 2001 की जनगणना के बाद केंद्र की अटल बिहारी सरकार ने 25 सालों के लिए परिसीमन को टाल दिया था. यह समय 2026 में पूरा हो जाएगा. यानी परिसीमन के रास्ते फिर से खुल जाएंगे.
परिसीमन एक संवैधानिक प्रक्रिया है. हर बार जनगणना के बाद इसे किए जाने का प्रावधान है क्योंकि जनगणना के बाद ही यह साफ होता है कि निर्वाचन क्षेत्रों (लोकसभा और विधानसभा) में कहां कितनी आबादी है. इसके आधार पर ही निर्वाचन क्षेत्रों में बदलाव किया जाता है.
लोकसभा की बात करें तो 1971 की जनगणना के बाद जब साल 1976 में परिसीमन होना था, तो इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान संशोधन कर 25 साल के लिए इसे रोक दिया. फिर जब 2001 के बाद फिर से परिसीमन की बारी आई तो एक बार फिर इसे आगे बढ़ा दिया गया. अगर साल 2021 में जनगणना होती तो संभव था कि 2026 में देश में लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या राज्यवार बदल जाती लेकिन ऐसा नहीं होने की स्थिति में अब 2031 की जनगणना के बाद ऐसा होने की संभावना है.
क्या कुछ बदल जाएगा?
चूंकि परिसीमन में आबादी के हिसाब से राज्यों में लोकसभा की सीटों में बदलाव होता है. ऐसे में साफ है कि अगर परिसीमन होता है तो उत्तर भारतीय राज्यों के हिस्से में ज्यादा सीटें आएंगी. ऐसा इसलिए क्योंकि दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत में जनसंख्या में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक प्रति 20 लाख आबादी पर एक लोकसभा सीट तय की जाए तो देश में 543 की जगह 753 लोकसभा सीटें होंगी. ऐसे में दक्षिण और उत्तर भारत के सीट अनुपात में बड़ा फर्क आएगा.
पिछले 5 दशकों से दक्षिण भारत के 5 राज्यों (तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल) में लोकसभा की 543 में से 129 सीटें हैं. यानी लोकसभा की 24% सीटें दक्षिण भारतीय राज्यों से आती हैं. नए परिसीमन के बाद इन पांच राज्यों में कुल सीटें 144 हो सकती हैं. यानी 15 सीटों का इजाफा, लेकिन कुल 743 सीटे होने के कारण लोकसभा में तब दक्षिण भारतीय राज्यों का प्रतिनिधित्व केवल 19 फीसदी रह जाएगा. यानी 5 प्रतिशत की कटौती हो जाएगी.
उधर, उत्तर भारत के कुछ राज्यों की लोकसभा सीटों में अप्रत्याशित इजाफा होगा. यूपी में 80 से 128, बिहार में 40 से 70, मध्य प्रदेश में 29 से 47, राजस्थान में 25 से 44 लोकसभा सीटें हो जाएंगी. इसी तरह बाकी उत्तर भारतीय राज्यों में भी लोकसभा सीटों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होगी.
दक्षिण भारतीय राज्यों में बेचैनी क्यों?
लोकसभा में उत्तर भारतीय राज्यों का प्रतनिधित्व बढ़ेगा और दक्षिण भारत का कम होगा. दक्षिणी राज्यों को डर है कि ऐसा होने पर सरकारें उत्तरी राज्यों पर ही ज्यादा फोकस करेंगी. इस तरह के उदाहरण सामने भी आते रहे हैं. जैसे तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों से केंद्र को जो टैक्स मिलता है, उसका 30 फीसदी ही इन राज्यों पर रिटर्न खर्च हो रहा है, जबकि यूपी-बिहार टैक्स में जो योगदान देते हैं, उसके मुकाबले उन्हें केंद्र सरकार की योजनाओं में 250 से 300% फंड दिया जा रहा है. दक्षिणी राज्य इसे लेकर लगातार सवाल भी उठाते रहे हैं.
एक और तथ्य यह भी है कि उत्तर भारत में बीजेपी की अच्छी पकड़ है. ऐसे में अगर लोकसभा में उत्तरी राज्यों का प्रतिनिधित्व 60 फीसदी तक पहुंच जाता है, तो ऐसे में बीजेपी की ताकत भी बढ़ जाएगी. वहीं, दक्षिण के क्षेत्रीय दल जैसे डीएमके, टीआरएस, टीडीपी जैसे पार्टियों का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभुत्व लगभग समाप्त हो जाएगा.
यही कारण है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने हाल ही में परिसीमन के खिलाफ बयान दिया था. केरल, कर्नाटक और तेलंगाना में इंडिया गठबंधन के नेता भी लगातार इसके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं.
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