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Ratan Tata Death why he had to work in Tata Motors and restaurant to pay fees


अधूरे प्यार के अलावा उसने जो भी शुरू किया, उसे पूरा करके ही दम लिया. जब पढ़ने का शौक लगा तो पिता से बगावत कर पढ़ाई की. जब जहाज उड़ाने का शौक लगा तो उसकी फीस चुकाने के लिए रेस्तरां में बर्तन भी धोए. जब नौकरी करने की बात आई तो फावड़े से चूना भी उठाया. जब कंपनी को बेचने की बात आई तो जिद पाल ली. जो कंपनी बेचनी थी, उसी के जरिए उस कंपनी को खरीद लिया, जिसने उसकी बोली लगाई थी. जब बारिश में भीगता परिवार देखा तो एक नई कार बना दी. जब कुत्ते को बीमार देखा तो लंदन के प्रिंस चार्ल्स का  शाही निमंत्रण ठुकरा दिया. जब मुंबई पर आतंकी हमला देखा…तो बिना पल गंवाए अपने पूरे होटल को बम से उड़ाने की इजाजत दे दी…जब जज्बे पर उम्र भारी पड़ती दिखी तो फाइटर जेट में सवार हो गया.

जब कुत्तों को सड़कों पर मरते देखा तो अपने फाइव स्टार होटल के दरवाजे खोल दिए. जब इतना पैसा कमा लिया कि लोगों की मदद कर सके….तो इतना दान किया…इतना दान किया कि दुनिया हैरान रह गई…ये कहानी है भारत के मशहूर उद्योगपति रतन नवल टाटा की, जो अगर इतने बड़े कारोबारी न भी होते…इतना पैसा नहीं भी कमाया होता तो दुनिया उन्हें तब भी यूं ही नम आंखों से ही विदाई दे रही होती. उनकी पहचान उनका कमाया पैसा या उनका बनाया साम्राज्य नहीं बल्कि उनका व्यक्तित्व है, जिसे कोई भी कभी भी भुला नहीं सकता है.

रतन टाटा पैदाइशी अमीर थे. उनके पिता नवल टाटा को रतनजी टाटा ने गोद लिया हुआ था. रतनजी टाटा थे जमशेदजी टाटा के बेटे, जिन्होंने टाटा समूह बनाया था. तो शुरू से ही रतन टाटा के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. कमी थी तो प्यार की, क्योंकि रतन टाटा जब महज 10 साल के थे तो उनके माता-पिता का तलाक हो गया था. रतन टाटा के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनकी दादी नवाजबाई टाटा के पास थी, लेकिन हक तो पिता का था ही बेटे पर. तो पिता चाहते थे कि बेटा पियानो बजाए, लेकिन बेटे ने वायलिन बजाना सीखा. थोड़ा बड़े हुए तो पिता चाहते थे कि बेटा पढ़ने के लिए ब्रिटेन चला जाए, लेकिन बेटा अमेरिका चला गया. पिता चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बन जाए, लेकिन बेटा आर्किटेक्ट बन गया. इसी आर्टिटेक्चर की पढ़ाई के दौरान रतन टाटा को जहाज उड़ाने का भी चस्का लग गया. ये वो वक्त था जब अमेरिका में पैसे देकर जहाज उड़ाना सीखा जा सकता था, लेकिन ये पिता की मर्जी के खिलाफ था, तो पिता ने जहाज उड़ाने के पैसे नहीं दिए.

फिर रतन टाटा ने इसकी फीस जुटाने के लिए छोटी-मोटी नौकरियां भी कीं, जिनमें रेस्तरां में बर्तन धोने का भी काम शामिल था. इसी दौरान उनका प्रेम भी परवान चढ़ रहा था, लेकिन उसकी परिणति नहीं हो पाई, क्योंकि जिस दादी ने रतन टाटा को पाला-पोसा था, वो बीमार पड़ गईं. तो रतन टाटा भारत लौट आए. इस वादे के साथ कि वो शादी करेंगे, लेकिन तभी भारत और चीन की जंग शुरू हो गई. लड़की के घरवाले एक युद्धरत देश में अपनी बेटी भेजने को राजी नहीं हुए. और नतीजा ये हुआ कि रतन टाटा का प्यार अधूरा रह गया.

इसके बाद रतन टाटा ने भारत में ही नौकरी शुरू कर दी और इसकी शुरुआत हुई टाटा कंपनी के साथ. तब एक कंपनी हुआ करती थी टेल्को, जिसे आज टाटा मोटर्स के नाम से जाना जाता है. रतन टाटा ने इस कंपनी में कुछ दिन काम किया और फिर उन्हें टाटा स्टील में भेज दिया गया. वहां रतन टाटा को फावड़े से चूना पत्थर उठाना पड़ता था. इस दौरान पता तो सबको था कि रतन टाटा हैं कौन, लेकिन ये रतन टाटा की सादगी थी कि उन्होंने कभी टाटा सरनेम का फायदा नहीं उठाया. वो उसी एप्रेंटिस हॉस्टल में रहे, जहां उनकी पोजिशन पर काम करने वाले दूसरे लोग रहते थे. दूसरे लोग साइकल से आते थे, रतन टाटा कार से जा सकते थे, लेकिन वो पैदल ही दफ्तर जाते थे. तब किसी को यकीन नहीं था कि नीली वर्दी पहनकर फावड़े से चूना उठाता ये आदमी कभी इस पूरी कंपनी का सर्वे सर्वा बन जाएगा.

ये भी एक झटके में नहीं हुआ. वो एक-एक पायदान चढ़ते रहे. बिहार से बंबई तक का सफर तय करते रहे. टाटा समूह की कई छोटी-छोटी कंपनियों को बड़ा बनाते रहे और फिर वो दिन भी आया, जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की होगी. वो 1990 का साल था. टाटा ग्रुप के चेयरमैन जेआरडी हार्ट की परेशानी की वजह से मुंबई के ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में भर्ती थे. एक सप्ताह बाद जब वो जब अस्पताल से छुट्टी पाकर घर आए, तो रतन टाटा जर्मनी से मर्सिडीज बेंज के साथ एक डील करके लौटे थे. रतन टाटा जेआरडी से मिलने के लिए घर पहुंचे. तो जेआरडी ने रतन टाटा से अपना मिलने पर पुराना तकियाकलाम दोहरा दिया…वेल..वॉट्स न्यू. यानी कि नया क्या है. रतन ने कहा कि कुछ भी नहीं. तो जेआरडी ने कहा कि तुम्हारे पास भले ही कुछ नया नहीं है, लेकिन मेरे पास है और फिर जेआरडी के पास उस दिन जो कुछ भी था…सब रतन टाटा को दे दिया. पूरी की पूरी कंपनी…पूरा का पूरा टाटा ग्रुप…वो समूह, जिसके मुखिया जेआरडी थे और जो पिछले 50 साल से उस कंपनी की कमान संभाल रहे थे. अब कंपनी को नया निजाम मिला. रतन टाटा का नेतृत्व मिला..और फिर रतन टाटा ने टाटा समूह को उस बुलंदी पर पहुंचा दिया, जहां से उसे देखकर दुनिया का कोई भी कारोबारी रश्क कर सकता है.

ये तो रतन टाटा का सिर्फ कारोबारी पहलू है. उनका दूसरा पहलू वो है, जिसके लिए उन्हें लोग याद करते हैं. चाहे वो भारत को उसकी अपनी पहली कार इंडिका देने की बात हो या फिर एक लाख रुपये में नैनो कार बनाने की बात हो या फिर मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद हमले में मारे गए टाटा समूह के कर्मचारियों के परिवार को संभालने की बात हो या फिर कोरोना काल में एक झटके में 1500 करोड़ रुपये दान कर देने की बात हो या फिर कुत्तों तक के लिए अपने फाइव स्टार होटल के दरवाजे खोलने की बात हो…जब बात दरियादिली की आई तो उस लाइन में उनसे आगे कोई नहीं निकला…कोई भी नहीं…अलविदा रतन नवल टाटा…

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