Opinion: दरक रही है सत्य की नींव पर खड़ी आततायी, आतंक और अश्लीलता की प्राचीर
<p style="text-align: justify;">तब सत्य मूक था. दादा साहब फालके ने भारतीय सिनेमा की पहली ही फिल्म से आभास करा दिया था इसका आधार सनातन, सत्य, संस्कृति और संस्कार होंगे. बावजूद इसके प्रयोगधर्मी सिनेमा भटक गया. आहिस्ता आहिस्ता भटकाव और भटकाने की ओर बढ़ता गया. लगता है भारतीय सिनेमा की नींव रखते तय हो गया था कि सत्य मूक रहेगा, मगर समझा जाएगा. 115 साल पहले भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म सत्यवादी राजा हरिशचंद्र एक मूक पिक्चर थी. इसके करीब दो दशक बाद भारतीय सिनेमा को जुबान मिली फिल्म आलम आरा से. तब से अब तक हमें कितना स्वस्थ सिनेमा मिला, भली प्रकार जानते हैं. भारत के विचार से परे सिनेमा में आक्रांता, आतंकी, अपराधियों का फर्जी हीरोइज्म परोसने का काम हुआ. </p>
<p style="text-align: justify;">ताजा रिलीज फिल्म छावा ने एक बार फिर आभास कराया है कि भारतीय सिनेमा आर्थिक पक्ष को साधते हुए दर्शकों को बेहतर देने की क्षमता रखता है. उसके पास सच्ची और अच्छी कहानियों की कमी नहीं है. आलमआरा, सिकंदर, मुगल-ए-आजम, जहां आरा, अनारकली, हुमायूं, चंगेज खान, मिस्टर नटवरलाल, दाउद हसीना पारकर, हाजी मस्तान, करीम लाला और दूसरे गुंडे मवालियों और आक्रांताओं के हीरोइज्म के कोई मायने नहीं है. फिर भी भारतीय सिनेमा के माध्यम से इन तत्वों को नायक बनाकर समाज को भ्रमित किया गया. हालांकि, जो विमर्श तैयार किया था,वो ध्वस्त हो रहा हैं. समय की डिमांड जागरुक सिनेमा की है. ताकि अतीत से सबक लेते हुए समाज सत्य और तथ्यों को समझ सके.</p>
<p style="text-align: justify;">निस्संदेह हर मामले में संतुलन की गुंजाइश होती है.राष्ट्र सेवा और उसके प्रति समर्पण, त्याग, बलिदान की कोई सीमा नहीं, यहां संतुलन परे हद पार हो सकती. हां, यह स्थिति उन्हें प्रभावित करती है,जिनका एजेंडा अनेक तरह के माध्यमों से भ्रम फैलाना था. जगजाहिर है कि अतीत में हमारे असंख्य गौरवशाली प्रतीक रहे हैं, मगर दबाने, छुपाने, हटाने, मिटाने एवं ना बताने का सिलसिला इसलिए चला कि उनकी मंशा खराब थी, क्योंकि महिमा मंडन तो उनका करना था, जिस धारा से हमारे राष्ट्र का कोई वास्ता नहीं था, यदि रहा तो वह केवल पीड़ा और पश्चाताप का.</p>
<p style="text-align: justify;">खैर देर से सही भारतीय सिनेमा में आतताइयों को छोड़ सच्चाइयों की पैकेजिंग शुरु हुई.अब इससे एक श्रेणी बेहद परेशान है.फिजूल कहानियों की जगह भारतीय गौरव का प्रतीक छावा जैसे विषयों ने ली है.हिंदी सिनेमा की सुपरहिट फिल्म द डर्टी पिक्चर का डायलाग काफी बेशर्मी से सिल्वर स्क्रीन पर परोसा गया था. इसके एक संवाद से विमर्श बनाया गया कि फिल्में तो सिर्फ तीन चीजों से ही चलती हैं और वो है इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट…. अब एक सवाल है कि तो वो कौन है जो फिल्म छावा को देखते हुए संभाजी की राष्ट्रभक्ति पर हर हर महादेव का जयघोष कर रहे हैं. वे कौन है जो इस फिल्म के दृश्यों में वीर शिरोमणि संभा जी के बलिदान को देखकर सिनेमाघरों में सुबक सुबक कर रो रहे है. केसरी, शहीद उधम सिंह सरीखी फिल्में यह बताने के लिए काफी है कि अब फिल्में केवल इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट से ही नहीं, बल्कि सही विषय और शानदार कंटेंट से भी चलती है. </p>
<p style="text-align: justify;">अब गौरवशाली इतिहास हमारा है तो सामने लाने की जिम्मेदारी भी तो हमें ही उठानी होगी. आज भी कई जगह पढ़ाया जाता है कि 1971 की जंग में भारत नहीं, पाकिस्तान ने फतह हासिल की थी और इस तरह का इतिहास दूसरे मुल्कों में पढ़ाने वाले आज भारत के ए प्लस प्लस ग्रेड विश्वविद्यालयों में उच्च पदों पर आसीन है और वे भली प्रकार से जानते हैं भी है और निसंकोच हम जैसों को बताते भी हैं. बैक टू बैक दक्षिण भारतीय सिनेमा ने जिस तरह के विषयों पर सफलता के कीर्तिमान स्थापित किए,उस मुकाबले हिंदी सिनेमा रेंगता हुआ नजर आ रहा था,मगर गिरते पड़ते अब हिंदी सिनेमा संभलने आतुर है.</p>
<p style="text-align: justify;">1941 में फिल्म आई थी सिंकंदर,जिसमें भारत के यशस्वी राजा पोरस और सिकंदर का युद्ध दिखाते हुए राष्ट्रवाद से प्रेरित बताया गया था, मगर पोस्टर से लेकर परदे तक हीरोइज्म सिकंदर का था. अगर परिस्थितियां पहले सी होती तो शायद छावा में संभाजी राजे की जगह पोस्टर से लेकर पर्दे तक ओरंग (ओरंगजेब) ही जलवा दिखता. </p>
<p style="text-align: justify;">छावा की तीन दिनों की कलेक्शन 100 करोड़ पार होने से अब दूसरे फिल्म निर्माता यह सोचने पर विवश जरूर होंगे कि भारत में अच्छी फिल्में डिमांड में है. पद्मावत, बाजीराव, केसरी, तान्हाजी, उधम सिंह, सैम बहादुर, मणिकर्णिका, पृथ्वीराज चौहान, पानीपत, वीर सावरकर, रामसेतु, परमाणु, एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिंदगी पर आधारित फिल्म छपाक, देश की पहली महिला एयरफोर्स पायलट गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल, गणितज्ञ आनंद कुमार पर आधारित सुपर 33, बारहवीं फेल, ‘द स्काई इज पिंक’, पीएम नरेंद्र मोदी, द एक्सीडेंटर प्राइम मनिस्टर, मौलाना आजाद, मंटो, संजू, सरबजीत, दंगल, एमएस धोनी, अजहर, द माउंटेमैन माझी,मैरीकाम जैसी कई फिल्में जिन्होंने ठीकठाक कारोबार भी किया और सुर्खियों में भी रहीं. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] </strong></p>
Source link