Mahapandit Rahul Sankrityayans Birth Anniversary Travelers In The World Of Ideology
30 से अधिक भाषाओं के ज्ञाता, हिंदी, संस्कृत और पाली के महान विद्वान, महापंडित, त्रिपिटकाचार्य, लेखक, आलोचक, साम्यवादी किसान नेता, पद्मभूषण और साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित केदार पांडेय उर्फ राम उदार दास उर्फ राहुल सांकृत्यायन की आज जयंती है. राहुल सांकृत्यायन (Rahul Sankrityayan) ने अपने जीवन में हजारों पन्ने लिखें और उनके ऊपर भी अब तक काफी कुछ लिखा जा चुका है. जिन्होंने भी उनके ऊपर कुछ भी लिखा उसने उनकी जिंदगी के कुछ हिस्सों को छूने का प्रयास किया. क्योंकि जितनी डायवर्सिटी उनकी जिंदगी और उनकी लेखनी और उनके कार्यों में रही शायद उतना डायर्वस लेखन पूरी वस्तुनिष्ठता के साथ संभव ही नहीं है.
हिमालय की 17 यात्राएं, विचारों की अनगिनत यात्रा
राहुल सांकृत्यायन की जीवन को लेकर प्रारंभिक बातें हिंदी के पाठकों की नजर में पहले से रही है. शायद हर कोई इन बातों को जानता है कि किस तरह काशी में संस्कृत के विद्वान बनने के बाद वो आर्यसमाज के संपर्क में आए और बाद में बौद्ध धर्म की तरफ आकर्षित हुए. बौद्ध धर्म की तरफ उनके आकर्षण का ही परिणाम था कि उन्होंने 17 बार हिमालय की दुर्गम यात्राएं की.
आजमगढ़ ज़िले के पंदहा गांव में जन्म के बाद काशी में संस्कृत की शिक्षा, आर्यसमाज से जुड़ना, बिहार में किसान आंदोलन में हिस्सा लेना, श्रीलंका में शिक्षण कार्य करना, तिब्बत की कई बार यात्रा करना, रूस में जाकर अध्यापन करना फिर वहीं लोला येलेना(महिला मित्र) के संपर्क में आना एक बच्चे के जन्म के बाद फिर वापस भारत आ जाना. भारत में अपने से 35 साल छोटी कमला सांकृत्यायन से शादी करना. और इन सब के बीच कांग्रेस पार्टी और नेहरु-गांधी के कट्टर आलोचक के तौर पर डटे रहना. यह विचारों और जिंदगी की इतनी यात्रा थी कि एक आम इंसान के कई जन्म गुजर जाए, लेकिन राहुल जी ने अपने 70 साल की जिंदगी में ही यह सब कुछ किया.
विचारों को ढोते नहीं निचोड़ते थे राहुल
राहुल सांकृत्यायन के जीवन और उनकी लेखनी को पढ़ने समझने के बाद हम बहुत हद तक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विचारों के भवसागर में फंसने में बहुत अधिक विश्वास नहीं करते थे. उनके अंदर गजब की बेचैनी थी. संस्कृत की पढ़ाई के बाद आर्यसमाज के साथ जुड़े, जितना कुछ ज्ञान उन्हें आर्यसमाज से लेना था उसके बाद उनका आकर्षण बौद्ध धर्म के प्रति हो गया. भारत और तिब्बत में बौद्ध धर्म की समृर्द्ध विरासत रही है. बौद्ध साहित्य को उन्होंने इतना अधिक निचोड़ा कि आज भी बिहार और बंगाल के लाइब्रेरी उसकी बदौलत सम्मानित है. राहुल जी के अनुसार जो विचार पुराने पड़ जाएं उसे छोड़ते हुए आगे बढ़ते जाना चाहिए.
बौद्ध धर्म के साथ ही उनका झुकाव साम्यवाद की तरफ भी होता चला गया. साम्यवाद में उन्हें बहुत कुछ पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने के मौके मिले. लेकिन शायद अगर राहुल कुछ दशक और जिंदा रह जाते तो साम्यवाद से भी जिस तरह महाश्वेता देवी का मोहभंग हो गया, संभव है कि राहुल भी उसी तरह कुछ अलग जरूर कर देते. कई मुद्दों पर उन्होंने आलोचना भी की थी.
विद्रोही मन कभी चुप न बैठा
वेद और वेदांत के अध्ययन के बाद मंदिरों में बलि चढ़ाने की परंपरा के विरुद्ध अपनी बात रखने के दौरान राहुल को अयोध्या में पुजारियों के विरोध का सामना करना पड़ा. उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकारने के बावजूद उसके ‘पुनर्जन्मवाद’ सिद्धांत को नहीं स्वीकारा. कट्टर साम्यवादी होने के बाद भी उन्होंने कई साम्यवादियों की खुलकर आलोचना की. 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन में बतौर अध्यक्ष, उन्होंने छपा हुआ भाषण पढ़ने से उन्होंने इनकार कर दिया था. अपने भाषण में अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों का उन्होंने विरोध किया था. जिसके बाद उन्हें पार्टी की सदस्यता भी छोड़नी पड़ी थी.
हिंदी के प्रेम ने राहुल को भारत में ही बांधकर रखा
हिंदी साहित्य को राहुल जी ने जितना कुछ दिया शायद ही किसी अन्य का इतना योगदान रहा हो. राहुल सांकृत्यायन की हिंदी कई मायने में अलग थी. उर्दू और फारसी के जानकार होने के बाद भी उनकी हिंदी संस्कृत निष्ठ थी (इस कारण उनकी आलोचना भी होती है) हिंदी के लिए किसी भी तरह की चुनौती पेश करने वाले भाषाओं को लेकर वो काफी निष्ठुर दिखते हैं. न सिर्फ उन्होंने उर्दू को हिंदी से अलग करने की कोशिश की बल्कि बिहार जैसे राज्यों में मजबूत आधार रखने वाली भाषा मैथिली को भी अंगिका और वज्जिका में तोड़ने का आरोप उनके ऊपर लोग लगाते हैं.
राहुल ने इतिहास लेखन को दी अलग दिशा
मध्य एशिया का इतिहास और अपनी साहित्ययिक के साथ-साथ इतिहास को समेटने वाली रचना वोल्गा से गंगा के माध्यम से उन्होंने इतिहास लेखन को एक नई दिशा दे दी. ‘वोल्गा से गंगा’ राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा हुआ एक ऐसा कहानी संग्रह है, जिसकी कहानियां इतिहास में मानवीय सभ्यता के विकास में घटी घटनाओं के मद्देनजर लिखी गई हैं. इसकी कहानियां काल्पनिक हैं लेकिन उसके डोर कहीं न कहीं भारत के वास्तविक इतिहास को लेकर होने वाली चर्चाओं से जुड़े हुए हैं.
वैचारिक अस्थिरता के पीछे क्या घुमक्कड़ी थे कारण?
राहुल जी को लेकर लगने वाले सबसे गंभीर आरोप रहे कि वो वैचारिक तौर पर अस्थिर थे. उनका मन कहीं नहीं लगता था. शायद इसके पीछे का प्रमुख कारण उनकी घुमक्कड़ी वाली आदत का होना था. जब आप दुनिया को करीब से देखते हैं तो वैचारिक बंधन कभी-कभी जकड़न की तरह दिखते हैं. समय और परिस्थिती के अनुसार बदलाव आवश्यक जान पड़ते हैं. घुमक्कड़ी उनकी पहली पसंद थी वो उस दौर से थी जब उन्होंने बचपन में ही इन पंक्तियों को पढ़ा था.
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहां
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां
राहुल सांकृत्यायन ने युवाओं से भी अधिक से अधिक घुमक्कड़ी की अपील की थी. उन्होने अपनी किताब ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ में लिखा भी है कि व्यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई धर्म नहीं है. जाति का भविष्य घुमक्कड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए मैं कहूंगा कि हरेक तरुण और तरुणी को घुमक्कड़-व्रत ग्रहण करना चाहिए.
सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.