JMM के 50 साल : आंदोलन से निकली पार्टी, टूटती-बिखरती रही… पर कैसे बढ़ा कारवां
झारखंड की राजनीति गर्म है. जमीन घोटाले के मामले में हेमंत सोरेन (Hemant Soren) को ईडी ने गिरफ्तार कर लिया है. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद चंपाई सोरेन (Champai Soren) झारखंड के मुख्यमंत्री बनेंगे. सोरेन परिवार और जेएमएम के ऊपर केस मुकदमों का लंबा इतिहास रहा है. 4 फरवरी 1973 को धनबाद में स्थापना से लेकर अब तक JMM में कई बार विभाजन और उनके नेताओं पर दर्जनों मुकदमे हो चुके हैं. आंदोलन के दौरान JMM के कभी अध्यक्ष रहे निर्मल महतो सहित दर्जनों नेताओं की मौत भी हुई. कई मौके ऐसे भी आए जब लगा कि JMM का अस्तित्व खत्म हो जाएगा, लेकिन अगले ही चुनाव में JMM की वापसी हो गई.
JMM की स्थापना के दिन भी शिबू सोरेन पर था गिरफ्तारी का खतरा
झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी और वियतनाम के संघर्षों से प्रभावित होकर मार्क्सवादी चिंतक एके रॉय ने अपने देखरेख में करवाई थी. रॉय झारखंड के क्षेत्र को एक आदर्श मार्क्सवादी स्टेट बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने दर्जनों दबाव समूह का गठन किया था. जिनमें से एक JMM भी था. JMM की कमान झारखंड की 2 प्रमुख जनसंख्या वाले समूह के नेता बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन को दी गई. बिनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष बनाया गया और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया.
जेएमएम की स्थापना के समय एके रॉय बिहार विधानसभा के सदस्य थे और उनके संरक्षण में शिबू सोरेन टुंडी के जंगलों में महाजनों, अर्थात शोषकों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे. इस लड़ाई के दौरान कई बार हिंसक झड़प भी होती थी. जिस कारण शिबू सोरेन पर कई मुकदमें दर्ज हो गए थे. जिस दिन जेएमएम की स्थापना की बड़ी रैली हुई थी उस दिन भी शिबू सोरेन की गिरफ्तारी की आशंका जतायी जा रही थी.
सरकार ने MISA कानून के तहत नेताओं को कर लिया था गिरफ्तार
जेएमएम की स्थापना के कुछ ही दिनों बाद कानून व्यवस्था का हवाला देकर सरकार ने ए.के. रॉय, बिनोद बिहारी महतो को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. 1974 में फिर ये नेता जेल से जब बाहर आए तो आपातकाल के दौरान एक बार फिर एके रॉय, बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया.
आपातकाल में जेल में रहने के दौरान शिबू सोरेन कांग्रेस के संपर्क में आ गए और उन्हें बहुत जल्दी ही जेल से छोड़ दिया गया. ए.के. रॉय के अलावा सभी नेताओं को जमानत मिल गयी.
जेएमएम में पहली बार हुआ विभाजन
1977 के लोकसभा चुनाव में ए.के. रॉय जेल से ही चुनाव जीत गए. लेकिन इस बीच शिबू सोरेन की दोस्ती कांग्रेस के साथ हो गयी. शिबू सोरेन के नेतृत्व में जेएमएम में विभाजन हो गया और शिबू विधानसभा चुनाव में उतर गए. जिसमें उनकी हार हो गयी. विधानसभा चुनाव में हार के बाद शिबू ने टुंडी क्षेत्र को छोड़ दिया और वो संथाल परगना चले गए. जेएमएम का एक गुट बिनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में सक्रिय था और दूसरा गुट शिबू सोरेन के नेतृत्व में. फिर 1979 में एके रॉय के प्रयासों से दोनों गुट को एक मंच पर लाया गया.
लेकिन दबाव समूह की तौर पर स्थापित जेएमएम इस समय तक एक राजनीतिक दल के तौर पर स्थापित हो चुका था. 1980 में शिबू सोरेन दुमका से सांसद बन गए.
1983 में एक बार फिर हुआ विभाजन
1983 में एक बार फिर शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो के खिलाफ विद्रोह कर अलग गुट बना ली. 1984 के लोकसभा चुनाव में उनकी हार हो गयी. जिसके बाद फिर 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले ए.के. रॉय ने दोनों गुटों में समझौता करवा दिया और शिबू सोरेन सहित कई लोग जीतकर बिहार विधानसभा पहुंचे. फिर लगभग एक दशक तक जेएमएम एकजुट रहा.
1987 में जेएमएम के अध्यक्ष और आजसू के संस्थापक निर्मल महतो की हत्या हो गई
बिनोद बिहारी महतो से अलग होकर शिबू सोरेन ने निर्मल महतो को पार्टी का अध्यक्ष बनाया था. निर्मल महतो तेजतर्रार नेता थे. हालांकि हत्या 8 अगस्त 1987 को जमशेदपुर के बिष्टुपुर में नार्दर्न टाउन स्थित चमरिया गेस्ट हाउस के सामने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गयी. इस घटना के बाद जमशेदपुर में भारी हिंसा हुई थी. निर्मल महतो ने कोल्हान क्षेत्र में जेएमएम को मजबूत बनाया.
1991 के बाद जेएमएम में फिर हुआ विभाजन
साल 1991 में बिनोद बिहारी महतो का लोकसभा चुनाव के कुछ ही दिनों बाद निधन हो गया. उनके निधन के बाद उनके बेटे राजकिशोर महतो गिरिडीह से सांसद बने. बिनोद बिहारी महतो से निधन के बाद जेएमएम में एक बार फिर विभाजन हुआ और उनके बेटे राजकिशोर महतो और कृष्णा मार्डी ने विद्रोह कर दिया. जेएमएम एक बड़ा विभाजन हुआ और नए झामुमो मार्डी का गठन किया गया. कुछ ही समय बाद शिबू सोरेन, सूरज मंडल, शेलेंद्र महतो जैसे नेता सांसद रिश्वत कांड में फंस गए. जिसके बाद जेएमएम की देश भर में बदनामी हुई.
सांसद रिश्वत कांड के कारण शिबू सोरेन को कई बार जाना पड़ा जेल
सांसद रिश्वत कांड के कारण शिबू सोरेन को कई बार जेल जाना पड़ा. इस दौरान ए.के. रॉय से भी उनके रिश्ते लगभग समाप्त हो गए. जेल में रहने के दौरान ही उन्हें अपनी परंपारगत सीट दुमका में भी हार का सामना करना पड़ा.
बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी ने उन्हें और उनकी पत्नी को 2 बार चुनाव में हराया. इसी दौरान उनके सहयोगी रहे शशिनाथ झा की भी हत्या हो गयी जिस मामले में भी शिबू सोरेन को जेल जाना पड़ा.
मंत्री रहते फरार हो गए थे शिबू सोरेन
2004 के लोकसभा चुनाव में जेएमएम के 5 सांसद चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे थे. कुछ ही दिनों के बाद शशिनाथ झा हत्याकांड में दिल्ली की एक अदालत ने शिबू सोरेन को दोषी करार दिया. जिसके बाद शिबू सोरेन मंत्री रहते ही गायब हो गए. बाद में उन्हें आत्मसर्मपण करना पड़ा. हालांकि बाद के दिनों में उन्हें अदालत से राहत मिल गय़ी और वो जेल से बाहर आ गए.
विधायक नहीं बन पाने के कारण सीएम पद छोड़ना पड़ा
मधु कोड़ा की सरकार के हटने के बाद शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उस समय वो विधायक नहीं थे. 6 महीने के अंदर उन्हें विधायक बनना था. तमाड़ विधानसभा में उपचुनाव होने थे. शिबू सोरेन वहां से चुनाव में उतरे लेकिन चुनाव हार गए. शिबू सोरेन को निर्दलीय उम्मीदवार राजा पीटर ने चुनाव में हरा दिया था. राजा पीटर एक गुमनाम चेहरे थे. बाद के दिनों में राजा पीटर को भी हत्या के मामले में जेल जाना पड़ा. हार के बाद शिबू सोरेन को सीएम पद छोड़ना पड़ा. बाद में फिर बीजेपी के सहयोग से एक बार शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने. लेकिन उस समय उन्होंने संसद में कांग्रेस के समर्थन में वोट दे दिया. जिससे नाराज होकर बीजेपी ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. एक बार फिर शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा.
हेमंत सोरेन की थी बेदाग छवि
हेमंत सोरेन अपने बड़े भाई दुर्गा सोरेन की मौत के बाद राजनीति में सक्रिय हुए थे. झारखंड अलग राज्य आंदोलन में उन्होंने कुछ खास हिस्सेदारी नहीं ली थी. दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के पहले तक हेमंत सोरेन के ऊपर कोई मुकदमें और दाग नहीं थे. हेमंत सोरेन ने कमान अपने हाथ में लेने के बाद जेएमएम को गांव के साथ-साथ शहरों में भी मजबूत किया. जेएमएम की एक मजबूत आईटी सेल बनायी गयी. शिबू सोरेन के ऊपर कई किताब लिखे गए. देश दुनिया के समाचार पत्रों में जेएमएम को अधिक जगह मिलने लगी. 2019 के विधानसभा चुनाव में JMM को इतिहास की सबसे बड़ी जीत मिली. हालांकि अब एक बार फिर जेएमएम संकट में है. पार्टी में टूट के खतरे भी हैं. ऐसे में देखना होगा कि लगभग 50 साल पुरानी यह पार्टी किस तरह से वापसी करती है.
सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं.
डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.