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Doon Library Giving Freedom From The Shackles Of Social Media Now Mountain Film Fest Is Going On Here – सोशल मीडिया की बेड़ियों से आजादी दिलाती दून लाइब्रेरी, अभी यहां चल रहा माउंटेन फिल्म फेस्ट


सोशल मीडिया से जकड़ा कोई इंसान अगर देहरादून पहुंच कर परेड ग्राउंड की तरफ रुख करता है, तो दून पुस्तकालय के दरवाजे उसके लिए दिन भर खुले रहते हैं. बड़े हॉल, अलमारियों में सजी ढेर सारी किताबें, लिफ्ट, किताब पढ़ते युवा, यह सब देखने में सुखद है.

पुस्तकालय की शुरुआत और विशेषता

दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र साल 2006 से देहरादून परेड ग्राउंड स्थित एक परिसर में शुरू हुआ था. अब इस साल यह संस्था लैंसडाउन चौक पर अपने नये भवन में स्थापित हो चुकी है. प्रो.बी. के जोशी, चंद्रशेखर तिवारी, सुरजीत किशोर दास व श्री एम. रामचंद्रन के कुशल निर्देशन में यह संस्थान उत्तराखंड में पढ़ने-लिखने की संस्कृति को आगे बढ़ाने का शानदार काम कर रहा है. पुस्तकालय में उत्तराखंड के इतिहास, राजनीति, संस्कृति, कला, पर्यावरण के साथ कई अन्य विषयों पर पुस्तकें उपलब्ध हैं और यह आपसी चर्चा को भी महत्वपूर्ण मंच प्रदान कर रहा है.

बन रहा है सांस्कृतिक अड्डा

पुस्तकालय में विषय विशेषज्ञों के व्याख्यान, गोष्ठी, समूह चर्चा, पुस्तक समीक्षा और प्रदर्शनी जैसे कार्यक्रमों का आयोजन होते रहते हैं. पुस्तकालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2007 से 2022 तक दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र द्वारा विविध माध्यमों के अन्तर्गत 175 से अधिक कार्यक्रम आयोजित किये जा चुके हैं.

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23 जून से पुस्तकालय में माउंटेन फ़िल्म फेस्टिवल का आयोजन किया जा रहा है. इस फेस्टिवल में भारत के साथ-साथ विदेशों के पर्वतीय परिवेश पर बनी फीचर फिल्मों, वृत्तचित्रों और एनिमेशन शॉर्ट्स को प्रदर्शित किया जा रहा है. खास बात यह है कि फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की जाने वाली सभी फिल्मों का प्रवेश पुस्तकालय में होने वाले अधिकतर कार्यक्रमों की तरह निशुल्क ही रखा गया है.

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जब पुस्तकालय में पहुंचे विश्व प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री

19 जून की शाम दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र और ‘उत्तराखंड इंसानियत मंच’ ने साथ मिलकर एक कार्यक्रम आयोजित किया. इस कार्यक्रम में इन दिनों भारत दौरे पर चल रहे पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक विश्व प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री इश्तियाक अहमद को बुलाया गया था. उन्होंने स्टॉकहोम विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में पीएचडी प्राप्त की है. कार्यक्रम में इश्तियाक को सुनकर महसूस हुआ कि धर्म के आधार पर राष्ट्र को बांटना कितना गलत है. आज़ादी के सालों बाद भी भारत में हिन्दू-मुस्लिम छोटे मोटे झगड़ों के बावजूद मिल कर साथ रह रहे हैं, कुछ लोग हैं जो फूट डालते हैं, पर उनको सालों पहले यही कार्य कर चुके लोगों के अनुभवों को जानना जरूरी है.

इश्तियाक के यूट्यूब पेज को अस्सी लाख से ज्यादा बार देखा गया है. उनकी किताबें ‘द पंजाब ब्लडीड,पार्टिशंड एन्ड क्लींज़्ड’ , ‘पाकिस्तान द गैरीज़न स्टेट’, ‘द पाकिस्तान मिलिट्री इन पॉलिटिक्स’, ‘ द कॉन्सेप्ट ऑफ एन इस्लामिक स्टेट’ काफी जानकारी भरी हैं.

विश्व प्रसिद्ध लेखक ने इस कार्यक्रम में भी अपनी किताबों पर बात की. उन्होंने कहा कि पंजाब का साहित्य जगत में तो बहुत काम है, पर शोध कार्य बहुत कम है. 14 अगस्त 1947 से 31 दिसंबर 1947 के बीच तीस प्रतिशत पंजाब की जनता अपने घर से बेघर हुई. भारत-पाकिस्तान विभाजन एक ऐसी त्रासदी है, जिस पर आज तक कोई कोर्ट केस नहीं हुआ.

उन्हें यह किताबें लिखने की इच्छा बचपन से ही थी. दो घटनाओं का उन पर असर था, वह कहते हैं कि 12 अगस्त 1947 को उनकी मम्मी घर की खिड़की से बाहर देख रही थीं, तो घर के दाहिने तरफ कुछ बदमाश किस्म के लोग जमा थे. उन्होंने बाईं तरफ से आने वाले एक सरदार पर हमले का प्रयास किया, लेकिन वो वहां से बचकर चले गए पर उसके बाद साइकिल में खाना बांधकर आते एक सरदार का इन लोगों ने बेरहमी से कत्ल कर दिया. इस हत्याकांड को देखने का मानसिक आघात मेरी मां के साथ हमेशा बना रहा और 1990 में उनकी मृत्यु तक इसका असर उन पर रहा.

ऐसे ही 1953 में पाकिस्तान में मार्शल लॉ के दौरान उनके घर के पास बंटवारे के दौरान अपने बेटे को खोने पर दिमागी रूप से अस्थिर एक मुस्लिम व्यक्ति पर फौज द्वारा गोली मारने के प्रयास ने भी इश्तियाक पर गहरा असर डाला था.

‘द पंजाब ब्लडीड,पार्टिशंड एन्ड क्लींज़्ड’ पर बात करते प्रोफेसर इश्तियाक अमहद ने बताया कि साल 2003 से 2005 तक की सर्दियों में मैंने अपनी किताब पर काम किया. कोई रिसर्च करना हो तो पागल बनना ही पड़ता है और इस पागलपन में ग्यारह साल लग गए. फिर ये किताब तैयार हुई और इसने करांची, लाहौर, देहरादून में साहित्यिक पुरस्कार जीते.

नेहरू और गांधी नहीं, जिन्ना थे विभाजन के जिम्मेदार

अपनी किताब ‘पाकिस्तान द गैरीज़न स्टेट’ का हवाला देते  प्रोफेसर इश्तियाक अमहद ने कहा कि लोग नेहरू और गांधी को विभाजन का जिम्मेदार मानते हैं, पर 22 मार्च 1940 में अपने एक भाषण में जिन्ना ने दो राष्ट्रों की थ्योरी दी थी. उनके अनुसार हिन्दू-मुसलमान साथ नहीं रह सकते थे और जिन्ना ने यह कभी नहीं कहा कि भारत पाकिस्तान बंटवारा न हो. वहीं, अंग्रेज़ अगर बंटवारा नहीं चाहते तो यह कभी सम्भव भी नहीं होता और जिन्ना खाली हाथ ही रहते. जिन्ना को बंटवारे पर बाद में पछतावा भी हुआ था और उन्होंने कहा भी कि उन्हें कीड़ों का खाया पाकिस्तान मिला.

नफरत पर बाद में पछतावा ही होता है

इश्तियाक अहमद इस सवाल पर कि जिन्ना को चाहने वाले वो लोग जिन्होंने बंटवारे के दौरान हत्याएं की थीं, वो अब उन हत्याओं पर क्या सोचते हैं. वह कहते हैं कि इन लोगों से आप यह सवाल अकेले पूछें तो उन्हें अपने द्वारा की इन हत्याओं पर दुख होता है, पर जहां यह सवाल कई लोगों के साथ होने पर पूछा जाए तो वह इस पर पछतावा नहीं करते.

इश्तियाक कहते हैं कि तब आगजनी करने वाले एक पाकिस्तानी व्यक्ति ने उनसे कहा कि मैं अल्लाह से माफी मांगता हूं, पाकिस्तान वह नहीं बन पाया जैसा हमने सोचा था. उस व्यक्ति ने कहा कि जब वह दिल्ली गया, तो वहां लाहौर के एक हिन्दू ने उसे पहचान लिया और कहा कि कोई दिक्कत हो तो उसे बताए.

मुश्किल रहा विभाजन पर शोध कार्य

अपनी किताब लिखते हुए शोध कार्य में आई समस्याओं पर प्रोफेसर ने कहा कि विभाजन को लेकर जो दस्तावेज उपलब्ध हैं, वो 14 अगस्त तक अंग्रेजों के बनाए हुए थे. उन सरकारी दस्तावेजों को ढूंढना मुश्किल था और बंटवारे की कहानी 15 अगस्त के बाद शुरू हुई और 1947 साल के अंत तक खत्म भी हो गई. इसलिए शोध के लिए हमने गांवों में जाकर बात की और ट्रिब्यून की खबरों को जोड़ते हुए ये सब तैयार किया. अंग्रेज़ों ने जैसा उनका मन था, जिससे उनको आगे लाभ होने वाला था, वैसा बंटवारा किया.

विभाजन के वक्त कांग्रेस ने रोका था कत्लेआम

इश्तियाक अहमद ने कांग्रेस पर यह महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया कि कांग्रेस ने कत्लेआम को रोकने की बहुत कोशिश की थी, जो मुसलमान भारत में रहना चाहते थे. कांग्रेस ने उन्हें यहां रोकने की कोशिश की.

पाकिस्तान से हिन्दू और सिखों का भारत के मुसलमानों की तुलना ज्यादा पलायन हुआ. उन लोगों से पाकिस्तान में रुकने की मर्जी नहीं पूछी गई, अगर हिन्दू-सिख वहां रुके होते तो पाकिस्तान में इनकी आबादी आज बीस प्रतिशत के आसपास होती.



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