Decreasing population of crows in Uttarakhand increases experts concern ann
Uttarakhand News: उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में कौवों की घटती संख्या से चिंतित लोग और विशेषज्ञ अपने-अपने दृष्टिकोण साझा कर रहे हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितृ पक्ष के दौरान सनातन धर्म के अनुयायी अपने पितरों को तर्पण देते हैं और प्रसाद के रूप में कौवे को भोजन कराते हैं, लेकिन हाल के वर्षों में देखा गया है कि पितृ पक्ष के दौरान भी कौवे दिखाई नहीं दे रहे हैं. इस साल 17 सितंबर से शुरू हुए पितृ पक्ष के दौरान लोगों ने कौवे का आह्वान कर प्रसाद रखा, लेकिन कई स्थानों पर घंटों इंतजार के बाद भी कौवा नजर नहीं आया. जबकि कुछ साल पहले तक कौवे स्वयं ही प्रसाद ग्रहण करने आ जाया करते थे.
ग्राम मासौं के बुजुर्ग रेवाधर थपलियाल और सतेश्वरी देवी ने कहा कि उन्होंने श्राद्ध के दौरान पूड़ी रखी, लेकिन एक भी कौवा नहीं आया. ग्रामीण कौवे को बुलाने के लिए ‘काले कौवा, काले कौवा’ पुकारते रहे, फिर भी कोई कौवा नहीं आया. इस समस्या के पीछे कुछ लोग पितृ दोष का कारण मान रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक और विशेषज्ञ इसके पीछे पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय कारणों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
कौवों की घटती संख्या पर क्या बोलें पक्षी विशेषज्ञ?
गढ़वाल विवि के जीव विज्ञान विभाग के प्रमुख और पक्षी विशेषज्ञ प्रोफेसर एमएस बिष्ट ने बताया कि पहाड़ी इलाकों से कौवे की संख्या में कमी आना एक गंभीर समस्या है. उनके अनुसार, कौवों की विलुप्ति के मुख्य कारण भोजन और आवास की कमी हैं. पलायन, खेती का बंजर होना, पशुपालन में कमी और विदेशी खर-पतवार के फैलने से कौवों के लिए भोजन की उपलब्धता घट गई है. कौवे मुख्य रूप से कीड़े-मकोड़े खाते हैं, लेकिन इन कारणों से उनका प्रिय भोजन पहाड़ों में कम होता जा रहा है. इसके अलावा, पेड़ों की कमी के कारण कौवों के लिए घोंसला बनाना भी मुश्किल हो गया है.
प्रोफेसर बिष्ट के अनुसार, पहाड़ों में दो मुख्य प्रजातियां पाई जाती थीं. घरेलू कौवे का गला स्लेटी होता है, जबकि जंगली कौवा पूरा काला होता है और आकार में बड़ा होता है. लेकिन अब इन दोनों प्रजातियों की संख्या में भारी गिरावट आई है. राजकीय महाविद्यालय लैंसडौन के प्राणी विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डॉ. मोहन कुकरेती का मानना है कि खेती न होने और मानव जनित प्रदूषण के कारण कौवों के प्राकृतिक आवास पर संकट खड़ा हो गया है. रसायनयुक्त भोजन खाने से उनकी प्रजनन क्षमता पर भी बुरा असर पड़ा है, जिसके कारण उनकी संख्या में गिरावट आ रही है.
कौवौं के विलुप्त होने से बिगड़ सकता है पारिस्थितिकीय संतुलन
कौवों के विलुप्त होने का पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा. प्रोफेसर बिष्ट ने कहा कि पक्षी, खासकर कौवे, हर जलवायु में अपने आप को ढालने में सक्षम होते हैं. लेकिन पहाड़ों से इनका गायब होना पारिस्थितिकीय संतुलन को बिगाड़ सकता है. इस बदलाव का असर दशकों बाद नजर आ सकता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि इसका दुष्प्रभाव गहरा होगा.
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