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इंसान के लिए जानवर बनना इतना मुश्किल तो नहीं, फिर करोड़ों क्यों खर्च कर रहा जापानी शख्स?


फितूर के पीछे क्या है?
पहला सवाल तो यही उठता है कि आखिर उस शख्स के मन में जानवर जैसा दिखने की इच्छा क्यों हुई? टोको का कहना है कि वह एकदम डॉगी जैसा दिखकर, उस जैसा जीवन जीकर अनुभव हासिल करना चाहता है. जानना चाहता है कि जानवरों के जीवन में किस-किस तरह की चुनौतियां आती हैं. टोको का एक यू-ट्यूब चैनल भी है, ‘आई वांट टू बी एन एनिमल’. यहां उसे भर-भरकर प्यार या दुत्कार, आसानी से मिल रहे हैं. लेकिन टोको को इस तरह का अनुभव लेने के लिए इतना कठिन रास्ता चुनने की जरूरत क्यों पड़ी?

इंसान बनाम डॉगी
सीधे-सीधे ‘कुत्ता’ भी लिखा जा सकता है. कोई हर्ज नहीं. लेकिन शायद इस वफादार साथी को अतिरिक्त इज्जत बख्शने की खातिर इसे ‘डॉगी’ लिखने का चलन बढ़ा है. अच्छा है. कई बार इंसान कुत्ते से वफादारी सीखता है, कई बार कुत्ता इंसान से चालबाजी और धोखेबाजी. पता नहीं, एक-दूसरे से इस तरह सीखने-सिखाने वाला ये रिश्ता क्या कहलाता है!

वैसे आदमी अच्छी तरह जानता है कि कुत्ते की जिंदगी कैसी होती है. हर किसी की जिंदगी में ऐसा दौर भी आता है, जब वह कहता है, “क्या करें यार, कुत्ते जैसी जिंदगी हो गई है!” मजे की बात कि कुत्ता भी इंसान की रग-रग से वाकिफ होता है. वह कुत्ता होने के कायदे, फायदे और विशेषाधिकार, सब जानता है. जानता है कि कब, किस पर, कितना भौंकना है. किस हरकत से रोटी मिलेगी, किस हरकत से जूते. पशु होकर भी इंसान की साइकोलॉजी बखूबी जानता है. फिर भाई टोको, आपको कुत्ते का हुलिया बनाकर जीने की जरूरत क्यों पड़ी? आपके भोलेपन पर थोड़ा शक होता है.
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विद्यार्थी-जीवन और जीव-विज्ञान
अपने यहां जब बच्चा सीखना शुरू करता है, उसे तभी सिखा दिया जाता है. यही कि जानवरों से सीखो, फायदे में रहोगे. ‘काक चेष्टा, बको ध्यानम्…’ याद है ना! विद्यार्थी जीवन में हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने की ताक में रहो, अवसर देखते ही झपट्टा मारो. एकदम कौवे की तरह. पढ़ाई के वक्त ध्यानमग्न रहो, किसी बगुले की तरह. नींद खींचो, पर उसमें भी होश बनाए रखो, किसी श्वान की तरह. चैन की नींद सोना कुत्ते का काम नहीं. घोड़े बेचकर सोना विद्यार्थी का भी काम नहीं.

अब बताइए कि इंसान को कौवे, बगुले या श्वान की खासियत के बारे में इतना सबकुछ कैसे पता? क्या पहले किसी टोको को इनके जैसा जीवन जीकर देखने की कोशिश करनी पड़ी होगी? लगता तो नहीं. इन जीवों की हरकतें ही सबकुछ बयां कर देती हैं. ऐसा न होता, तो हम जब-तब इंसानों की तुलना पशुओं से कैसे करते? उन्हें जानवरों की पदवी से क्यों नवाजते?

भीतर का जानवर
वैसे देखा जाए, तो इंसानों को जानवरों का चोला ओढ़ने की क्या जरूरत? हर इंसान के भीतर कई जानवर छुपे होते हैं. कोई इन्हें काबू कर लेता है, कोई उलटे इनके काबू में आ जाता है. किसी-किसी के भीतर, कोई खास जानवर इतना हावी हो जाता है कि वही उसकी पहचान बन जाती है. नजर दौड़ाइए, अपने आसपास ही दिख जाएंगे. मेहनतकश और सीधे-सादे गधे किसी परिचय के मोहताज नहीं. पल-पल रंग बदलने में माहिर, गिरगिटों की कौम को कौन नहीं जानता? वहशी भूखे भेड़ियों को किसका धिक्कार नहीं मिलता? अक्ल के अंधे उल्लुओं का कम उपहास नहीं होता.

इसी तरह, निडर-निर्भय शेरदिल वालों के साहस की हर जगह सराहना होती है. हंस की चाल चलने वालों को ‘जमाना दुश्मन’ होने की दुहाई दी जाती है. और जीभ लपलपाते कुत्तों से मिलने क्या हमें जापान जाना पड़ेगा? सच बात तो यह है कि जानवर बनने के लिए हमें एक ढेला भी खर्च करने की जरूरत नहीं.

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पशुओं का प्रपंच और पंचतंत्र
इंसान खुद भी तो एनिमल ही है न- सोशल एनिमल. इंसानों ने पशुओं को सिर्फ दूहकर या उसकी पीठ पर सवार होकर ही फायदा नहीं उठाया. इंसानों ने पशुओं का सहारा लेकर अपनी अनगिनत पीढ़ियों के दिमाग की बत्ती भी जलाई है. कोई जटिल बात बैल-बुद्धि वालों के भेजे में भी आसानी से समा सके, इसकी जुगत लगाई है. तभी तो पशुओं को केंद्र में रखकर, उनके इर्द-गिर्द तरह-तरह की कहानियां बुनी गईं. अद्भुत और गूढ़ ज्ञान के साथ-साथ टैक्स-फ्री मनोरंजन. ‘पंचतंत्र’ और ‘हितोपदेश’ में और क्या है भला? एक कौवा था. एक सियार था. एक लोमड़ी थी. एक हाथी था. ऐसे असंख्य जानवरों की कहानियां. कहानी के भीतर कोई और रोचक कहानी.

कमाल देखिए, ये जीव-जंतु एक-दूसरे से क्या-क्या बातें करते हैं, वे खुद शायद समझें न समझें, पर इंसानों को यह खूब पता है! लोमड़ी ने डाल पर बैठे कौवे से कहा- भाई, तुम बहुत अच्छा गाते हो. और कौवा चालाक लोमड़ी की बातों में आ गया! बूढ़े बाघ ने आदमी को सोने का कंगन देने के बहाने बुलाया और दलदल में फंसा दिया! देखिए, इंसान ने किस खूबसूरती के साथ अपने दिमाग की बात जानवरों के मुंह में डाल दी. कहानियां हिट हुईं, क्योंकि जानवरों की पात्रता देखकर, उनकी साइकोलॉजी के मुताबिक डायलॉग बांटे गए.

ऐसे में भाई टोको, आपको अगली बार भालू, पांडा या लोमड़ी बनने की जरूरत नहीं है. बस ‘पंचतंत्र’ ऑनलाइन मंगवा लीजिए!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं… ‘अमर उजाला’, ‘आज तक’, ‘क्विंट हिन्दी’ और ‘द लल्लनटॉप’ में कार्यरत रहे हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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