क्या होगा अगर नोटा को मिले सबसे ज्यादा वोट, देखें NOTA का 2013 से 2024 तक का सफर
भारत में मतदान प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू है ‘नोटा’ (None of the Above-NOTA), जिसका हिंदी में अर्थ है ‘इनमें से कोई नहीं’. भारत में पहली बार 2013 में नोटा का इस्तेमाल किया गया. इससे मतदाताओं को ईवीएम में यह बताने का विकल्प मिला कि वे किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते हैं. वे उनको वोट नहीं देंगे. नोटा को नेगेटिव वोट भी कहा जाता है. कई लोग नोटा को वोट की बर्बादी भी मानते हैं.चलिए हम आपको बताते हैं कि नोटा को भारत के चुनाव में क्यों लाया गया था और इसका पूरी चुनाव प्रक्रिया पर क्या असर पड़ा है.
क्या होगा अगर नोटा को मिले सबसे ज्यादा वोट?
अभी चल रहे लोकसभा चुनाव में गुजरात के सूरत में बीजेपी प्रत्याशी निर्विरोध विजेता घोषित किया गया. इसके बाद एक सवाल सबके मन में उठा. वह यह कि अगर नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिले तो क्या होगा? मौजूदा नियमों के तहत अगर मतदान में नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं तो नोटा के बाद सबसे अधिक वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल में नोटा को बहुमत मिलने पर क्या होगा, इस सवाल को उठाने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग से जवाब मांगा है.
चुनाव आयोग ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इसे लागू किया. सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2013 में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग को ईवीएम (Electronic Voting Machines) पर NOTA (नोटा) का विकल्प देने को कहा था. नोटा का बटन ईवीएम पर अंतिम विकल्प के रूप में लिखा होता है.
नोटा को मतदान में शामिल करने के कारण
नोटा को ईवीएम पर शामिल करने के ये तीन प्रमुख कारण माने जा सकते हैं. इनमें से पहला कारण यह है कि लोकतांत्रिक देश में जनता के पास अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार तो है, लेकिन उसके पास राजनीतिक दलों और अन्य उम्मीदवारों को नकारने का कोई विकल्प नहीं है.
राजनीतिक दलों को नोटा के माध्यम से मतदाता यह बता सकता है कि अगर वे योग्य उम्मीदवार नहीं देंगे तो जनता उन्हें चुपचाप स्वीकार नहीं करेगी.नोटा से सामान्य नागरिक को गुप्त मतदान के जरिए बिना किसी दबाव के अपनी बात रखने की आजादी मिलती है. इसीलिए नोटा एक अच्छा विकल्प भी माना जाता है.
नोटा का चुनावों पर क्या प्रभाव पड़ा है?
नोटा का प्रभाव चुनाव परिणाम पर अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब बदलता दिखता है. यह दिखाता है कि कितने लोग पार्टियों की ओर से उतारे गए उम्मीदवारों से खुश नहीं हैं. अगर किसी चुनाव क्षेत्र में नोटा को काफी वोट मिलते हैं तो राजनीतिक दलों के लिए यह एक बड़ा संदेश होता है. इससे उन्हें उस क्षेत्र में अपनी नीति और नेता बदलने की जरूरत का अहसास होता है.
हालांकि देश में अबतक नोटा का प्रभाव चुनाव और मतदाताओं पर न के बराबर ही देखने को मिला है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट की मानें तो 2013 में नोटा को ईवीएम पर शामिल करने के बाद 2014 के चुनाव में नोटा को 1.08 फीसदी ( 60,00197) वोट मिले थे. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में 1.06 फीसदी ( 65,23,975) वोट नोटा को मिले थे.
क्वांटम हब फर्म ने चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण कर पता लगाया कि देश में नोटा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल बिहार में किया गया.बिहार में दो फीसदी वोट नोटा को मिले. इसके बाद आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नंबर आता है.
नोटा की चुनौतियां क्या हैं?
नोटा भारतीय चुनावी प्रक्रिया में केवल प्रतीकात्मक हिस्सा बनकर रह गया है. मतदाता अपना असंतोष नोटा के जरिए जता तो रहे हैं, लेकिन इन मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक नहीं है कि राजनीतिक दलों पर उसका कुछ असर पड़े. नोटा को मिले वोट सीधे तौर पर चुनाव के नतीजों को प्रभावित नहीं करते हैं. नोटा का चुनाव रिजल्ट पर सीधा कोई असर नहीं पड़ता है, सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाला उम्मीदवार ही विजेता घोषित किया जाता है.
नोटा जैसे अधिकार से पोलैंड में गिर चुकी है सरकार
नोटा जैसे ही राइट टू रिजेक्ट अधिकार का इस्तेमाल पोलैंड में 1989 के चुनाव में किया गया था. सामाजिक आंदोलन और सरकार के खिलाफ बड़ा असंतोष का नतीजा यह हुआ था कि पोलैंड में कम्युनिस्टों की सरकार गिर गई थी. इस सरकार को गिराने के लिए मतदाताओं ने राइट टू रिजेक्ट का इस्तेमाल किया था.
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