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Know The Penal Provisions Of The Protection Of Civil Rights Act What Does The Law Of Untouchability Say Abpp


साल 2022 में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट का एक मामला सामने आया था जहां दलित समाज के बच्चों ने छुआछूत से तंग आकर स्कूल जाना बंद कर दिया था. बच्चों का आरोप था कि उनकी जाति के कारण उन्हें स्कूल के पास लगे सरकारी हैंडपंप से पानी तक नहीं पीने दिया जाता था. जिससे वह प्यासे बैठे रहते हैं. 

बच्चों ने बताया कि उन्होंने इस घटना की शिकायत अपने स्कूल के प्रधानाध्यापक से भी की थी, लेकिन उन्होंने भी उन्हें उल्टा फटकारते हुए कहा कि जब तुम लोगों को कोई नहीं छूता है तो तुम लोग उन्हें क्यों छूते हो. इसके अलावा इसी साल यूपी के एक गांव में घोड़ी पर बैठे दुल्हे को नीचे उतार दिया गया था. कारण था उसका दलित जाति का होना. 

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में दलितों की आबादी करीब 17 फीसदी है. यानी देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. लेकिन इस देश में आज भी छुआछूत एक ऐसी बीमारी है जिसका इतने दशकों बाद भी कोई इलाज़ नहीं ढूंढा जा सका है, हां राजनैतिक नेताओं ने छुआछूत के नाम पर अपने भविष्य ज़रूर संवार लिए हैं. अक्सर ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा किसी दलित तो किसी आदिवासी समुदाय के घर खाना खाने की तस्वीरें लगातार सोशल मीडिया वायरल होती रहती है. 

छुआछूत और जातियों के नाम पर जो राजनीति होती आई है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि कहीं-ना-कहीं छुआछूत हमारे समाज से खत्म नहीं होने देना भी एक राजनीति ही है, क्योंकि तमाम राजनीतिक पार्टियां इसी के दम पर अपना भविष्य देख रहे हैं. 

क्या होता है छुआछूत 

जब समाज का कोई समुदाय दूसरे समुदाय से काम, जाति, परंपरा के आधार पर अलग व्यवहार करता है और उस समुदाय को सामूहिक रूप से अधूत मानकर सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश से वर्जित करता है, तो इसे ही छुआछूत कहते हैं. 

भारत में छुआछूत का कानून क्या कहता है?

संविधान में स्पष्ट उल्लेख कर छुआछूत को खत्म करने के लिए प्रावधान किए गए और इसके साथ ही एक आपराधिक कानून भी बनाया गया जिसका नाम ‘सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955’.

1955 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया गया था. यह अधिनियम 1 जून, 1955 से प्रभावी हुआ था, लेकिन अप्रैल 1965 में गठित इलायापेरूमल समिति की अनुशंसाओं के आधार पर साल 1976 में इस संशोधन किये गए और इसका नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (Protection of Civil Rights Act, 1955) कर दिया गया था. यह संशोधित अधिनियम 19 नवंबर, 1976 से प्रभावी हुआ.

इस कानून में कुछ ऐसे कार्यों को अपराध घोषित किया गया जो छुआछूत से संबंधित है. सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955′ कानून को बनाए जाने का उद्देश्य भारत में छुआछूत का अंत करना और देश में जाति के आधार पर भेदभाव करने वाले व्यक्तियों को सजा देना था. 

भारत में जाति के आधार पर भेदभाव को लेकर सख्त कानून तो है लेकिन सिर्फ कानून बना देने से हजारों सालों से चली आ रही मानसिकता नहीं बदलती. यही कारण है कि आज भी दलितों के खिलाफ आज भी अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं.

सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 की निम्न धाराएं अपराधियों का उल्लेख करती है तथा उनसे संबंधित दंड का प्रावधान करती है-

धारा-3

धार्मिक आधार पर भेदभाव पर सजा

किसी भी व्यक्ति को जाति के आधार पर लोक पूजा-स्थान में प्रवेश करने से रोकना कानूनन अपराध है. ऐसा करने पर कम से कम एक महीने और ज्यादा से ज्यादा 6 महीने की अवधि के कारावास और जुर्माने का प्रावधान है. जुर्माना भी कम से कम एक सौ रुपये और अधिक से अधिक पांच सौ रुपये तक का हो सकता है. 

धारा-5

अस्पतालों आदि में प्रवेश करने से इनकार करने के लिए दंड:-

किसी भी व्यक्ति को अस्पताल, औषधालय, शिक्षा संस्था में प्रवेश से इनकार करने पर कम से कम एक महीने और ज्यादा से अधिक छह महीने की अवधि की सजा और सौ से लेकर पांच सौ रुपये तक का जुर्माना दंडनीय होगा.

अनुसूचित जाति के लोगों के साथ हुए अपराध

हमारे देश में आजादी से पहले से ही जाति के नाम पर भेदभाव किया जाता रहा है, लेकिन देश आजाद होने के बाद भारत के संविधान में सभी नागरिकों की बराबरी के सिद्धांत को दृढ़ता से स्थापित किया गया और छुआछूत को गैरकानूनी करार दे दिया गया.

हालांकि कानून बनाए जाने के बाद भी राजनीतिक पार्टियों ने इस मसले को सबसे पेचीदा मसला बनाए रखा. आज हम जब भी छुआछूत की बात करते हैं, तो लोग इसे मनुवाद या किसी तथाकथित उपमाओं से नवाज़ देते हैं. लेकिन आज भी छुआछूत के मामले सामने आते रहे हैं.   

अनुसूचित जाति के खिलाफ हो रहे अपराध को लेकर साल 2021 एनसीआरबी की रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ 30.4 प्रतिशत अपराध के मामले दर्ज हुए हैं. सबसे ज्यादा हिंदी क्षेत्र में अत्याचार के मामले दर्ज किए गए हैं. ऐसे मामलों की संख्या यूपी में सबसे ज्यादा है वहीं दूसरे स्थान पर राजस्थान है तो तीसरे मध्य प्रदेश दूसरे और तीसरे स्थान पर है.

पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़कर एसटी के खिलाफ साल 2021 में सिर्फ एक आपराधिक मामला दर्ज हुआ है वहीं एससी के खिलाफ तीन मामले हैं.

जहां उत्तर प्रदेश में दलितों के खिलाफ अपराध के मामले बढ़े हैं वहीं बिहार में इसमें कमी देखने को मिली है. 


68 साल बाद भी जाति क्यों नहीं जाती

पिछले कुछ सालों में भेदभाव की घटनाएं सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी बढ़ी है. अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की मौत, वेस्टइंडीज़ के पूर्व क्रिकेटर डेरेन सैमी का भारत में आईपीएल मैचों के दौरान नस्लीय भेदभाव होना प्रत्यक्ष उदाहरण है.

स्वतंत्रता के बाद किसी भी तरह के भेदभाव को रोकने के लिए भारत में समानता के अधिकार का नारा बुलंद किया गया. समानता के अधिकार को इतना ज्यादा महत्त्व देने का सबसे बड़ा कारण यही था कि भारतीय जनमानस को इस बात का अहसास हो सके कि भारत मे हर व्यक्ति संविधान के लिए एक समान है. भेदभाव के खिलाफ संरक्षण प्रदान करने के लिये विधि बनाने की दिशा में प्रयास करते हुए लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने साल 2017 में सदन में एक निज़ी विधेयक (Private Member’s Bill) प्रस्तुत किया था.

इस विधेयक में भेदभाव के खिलाफ संरक्षण प्रदान करने के लिये समानता के अधिकार और उसके महत्त्व पर चर्चा की गई थी. इसके साथ ही भारत में भेदभाव व छुआछूत को जड़ से खत्म करने के लिए इक्वलिटी बिल (Equality Bill) बनाने की आवश्यकता का विश्लेषण भी किया गया था. 



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