सेकुलरिज्म और सोशलिज्म और हिंदुत्व, सुप्रीम कोर्ट में इन तीन शब्द पर क्यों हुआ इतना बवाल
नई दिल्ली:
Secular, Socialist and Hindutva words in Supreme court: सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को तीन अहम शब्द गूंजे. ये शब्द अकसर देश में सड़क से लेकर तमाम नु्क्कड़ चौराहों और राजनीतिक मंचों तक गूंजते रहते हैं. इन शब्दों में देश के संविधान की प्रस्तावना में लिखे गए पंथनिरपेक्ष (Secular) और समाजवादी (Socialist) के साथ ही हिंदुत्व शब्द शामिल रहा. कोर्ट में दो प्रमुख याचिकाएं थीं. एक में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों पर फैसले की उम्मीद में दायर याचिका थी तो एक अन्य याचिका में हिंदुत्व शब्द के स्थान पर भारतीय संविधानित्व शब्द के प्रयोग के लिए याचिका दायर की गई थी. पहली याचिका पर सुनवाई जारी है जबकि दूसरी याचिका को कोर्ट ने खारिज कर दिया.
पहली याचिका बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्वनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने दाखिल की थी. यह याचिका 1950 के संविधान की मूल प्रस्तावना में किए गए बदलाव पर आपत्ति को लेकर दायर की गई थी. इस याचिका में संविधान की मूल प्रस्तावना में समाजवादी (सोशलिस्ट)और पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़े जाने को लेकर चुनौती दी गई थी . इन्हीं याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की.
बाबा साहेब के संविधान में नहीं थे सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम पहले यह जान लें कि ये शब्द संविधान में कब जोड़े गए. जानकारी के लिए यह बताना उचित है कि 1950 में देश में लागू किए गए संविधान के मूल प्रारूप की प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे. यानि बाबा साहेब आंबेडकर की अध्यक्षता में जिस संविधान को तैयार किया गया था और जिसे देश ने स्वीकार कर अंगीकार किया था उस संविधान में ये शब्द नहीं थे.
संविधान की प्रस्तावना में कब जोड़े गए थे ये शब्द
देश में जब इंदिरा गांधी की सरकार थी और देश में जब इमरजेंसी लगाई गई थी उसी दौरान इस सरकार द्वारा 1976 में लाए गए 42वें संविधान संशोधन के तहत इन शब्दों को जोड़ा गया था. संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द इस संशोधन के तहत शामिल किए गए थे. इस संशोधन से संविधान की प्रस्तावना में भारत का उल्लेख “संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य” से बदलकर “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” कर दिया गया था.
वर्ष 1950 में लागू किए गए संविधान की मूल प्रस्तावना कुछ इस प्रकार थी.
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा
उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिये,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.
लेकिन, इमरजेंसी के दौरान संविधान की मूल प्रस्तावना को 42वें संशोधन के बाद बदला गया जिसके बाद यह कुछ इस प्रकार हो गया.
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी ,पंथनिरपेक्ष ,लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता,
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा
और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली,
बन्धुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.
उल्लेखनीय है कि “समाजवादी” शब्द को शामिल करने का उद्देश्य यह बताया जाता है कि भारतीय राज्य द्वारा लक्ष्य और दर्शन के रूप में समाजवाद पर बल दिया जाना है. इससे गरीबी उन्मूलन तथा समाजवाद पर ध्यान केंद्रित किया जाना था. इसी में विशिष्ट एवं आवश्यक क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण करने का उद्देश्य भी शामिल था.
इसके अलावा “पंथनिरपेक्ष” को भी शामिल किया गया था. इस शब्द को शामिल करने का उद्देश्य स्पष्ट रूप से यह संदेश देना था कि देश के नीति निर्धारक पंथनिरपेक्ष रूप से देश को आगे ले जाने के लिए काम करेंगे. इससे पंथनिरपेक्ष राज्य के विचार को बल दिया गया. इसमें सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार और तटस्थता बनाए रखने को प्रोत्साहित किया गया. साथ ही किसी विशेष धर्म को राज्य धर्म के रूप में समर्थन नहीं देने का संदेश भी दिया गया .
डॉ आंबेडकर प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ने के पक्ष में नहीं थे
खैर सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ इस पर वापस आते हैं. सु्प्रीम कोर्ट में बलराम सिंह की ओर से बहस करते हुए वकील विष्णु शंकर जैन ने प्रस्तावना में संशोधन कर पंथ-निरपेक्षता और समाजवादी शब्द जोड़ने का विरोध करते हुए तर्क में यहां तक कहा कि डॉ भीम राव आंबेडकर प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने कहा कि आंबेडकर का मानना था कि इससे निजी स्वतंत्रता में कटौती होगी. इसके साथ ही जैन का कहना था कि संविधान की प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता है.
कोर्ट ने क्या कहा
इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि पंथनिरपेक्षता को हमेशा से संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है और सुप्रीम कोर्ट के बहुत से फैसलों में ऐसा कहा जा चुका है. इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने कहा कि समाजवाद का मतलब अवसर की समानता और देश की संपत्ति का बराबर बंटवारा भी हो सकता है.
कोर्ट ने पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल विशेषता माना
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने ये टिप्पणियां कीं. विष्णु शंकर जैन की दलीलों पर जस्टिस खन्ना ने कहा कि समाजवाद के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं. जस्टिस खन्ना का कहना था कि इसे उस अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए जैसी पश्चिम में माना जाता है. उन्होंने कहा कि यदि कोई समानता के अधिकार और संविधान में प्रयुक्त किए गए शब्द बंधुत्व के साथ-साथ संविधान के तीसरे भाग को देखें तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल विशेषता माना गया है. जस्टिस खन्ना का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में पंथनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा भी माना है.
हिंदुत्व शब्द पर कोर्ट ने क्या कहा
अब बात करते हैं दूसरी याचिका की. दिल्ली के विकासपुरी निवासी एसएन कुंद्रा ने यह याचिका दायर की थी. इस याचिका में हिंदुत्व के स्थान पर भारतीय संविधानित्व शब्द के प्रयोग करने की मांग की गई थी. इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लायक ही नहीं समझा. इस जनहित याचिका पर सुनवाई करने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया. इस याचिका में हिंदुत्व की जगह भारतीय संविधानित्व शब्द जोड़ने की मांग की गई थी. याचिकाकर्ता का कहना था कि हिंदुत्व शब्द, संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ अधिक निकटता से जुड़ा हुआ है.
कुंद्रा का कहना है कि हिंदुत्व शब्द एक विशेष धर्म के धार्मिक कट्टरपंथियों और हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान को एक धार्मिक संविधान में बदलने पर आमादा लोगों द्वारा इसके दुरुपयोग की बहुत गुंजाइश छोड़ता है. हिंदुत्व को राष्ट्रवाद और नागरिकता का प्रतीक बनाने का भी प्रयास किया जाता है.
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने इस याचिका को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि यह प्रक्रिया का पूर्ण दुरुपयोग है.’ मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता को साफ कहा, ‘नहीं, हम इस पर सुनवाई नहीं करेंगे.’