शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को क्यों कहा जाता है भारतीय सेना का ‘शेरशाह’, जानें इस योद्धा की कहानी
Kargil war : पाकिस्तान ने धोखे से जब 1999 करगिल की कई चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया, तब भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय शुरू किया. इस युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनकी वीरता की कहानी पूरे देश के लिए एक प्रेरणा है. एक ऐसा योद्धा जो कहता था ये दिल मांगे मोर…जंग के मैदान में कुछ योद्धा ऐसे होते हैं, जो अपनी बहादुरी के चलते इतिहास में अमर हो जाते हैं. जो देश की सेवा में कुछ ऐसा कर जाते हैं कि मिसाल बन जाते हैं. परमवीर कैप्टम विक्रम बत्रा को तो जैसे ख़ौफ़ के ख़ात्मे का ही शौक था.
दिल मांगे मोर ने जीता दिल
करगिल जंग के समय विक्रम बत्रा जम्मू-कश्मीर राइफ़ल्स की 13वीं बटालियन में अधिकारी थे. श्रीनगर-लेह रास्ते के ठीक ऊपर मौजूद चोटी प्वायंट 5140 को फ़तह करने की ज़िम्मेदारी विक्रम बत्रा की टुकड़ी को दी गई. 20 जून 1999 की सुबह बत्रा की टीम ने प्वाइंट 5140 पर कब्ज़ा कर लिया. इस चोटी से बत्रा ने रेडियो पर संदेश दिया था कि… हमने अपने सक्सेस सिग्नल अटैक पर जाने से पहले ही तैयार कर लिए हैं. ब्रावो कंपनी का सक्सेस सिग्नल ओ या या है, जो कि हमारे सीओ जोशी को रेडियो सेट पर बताया गया. उसके बाद एक और बंकर कैप्चर किया गया. मेरी कंपनी का सक्सेस सिग्नल दिल मांगे मोर. सारे लोग इतने जोश में थे कि वो चाहते थे कि कुछ और बंकर वहां होते.
शेरशाह की कहानी
प्वायंट 5140 पर कब्ज़े के बाद विक्रम बत्रा को लेफ्टिनेंट से कैप्टन बना दिया..उनका अगला मिशन था, प्वाइंट 4875 चोटी पर कब्ज़ा करना….इस मिशन पर जाने से पहले विक्रम बत्रा और उनकी टीम को कुछ दिन का रेस्ट मिला था. उन्होंने ख़ुद बताया था कि कैसे उनकी टीम एक बार फिर दुश्मन को धूल चटाने के लिए बेचैन है…दुश्मन उसी फ्रीक्वेंसी पर था, जिस पर हम थे. रेडियो सेट पर पाकिस्तान के एक सैनिक या अधिकारी, जो भी था. मेरा कोड नेम शेरशाह था. उसने कहा शेरशाह आप आ गए. ऊपर आने की कोशिश मत करना, वरना आपको बहुत मुश्किल होगी. उन्होंने हमें चैलेंज दिया, और मेरे साथियों का ग़ुस्सा चढ़ गया. उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सैनिकों की हिम्मत कैसे हुई हमें चैलेंज करने की. हमें मालूम था कि हम उनके निशाने पर हैं. या तो वो रहते या हम रहते…
ऐसे हुए वीरगति को प्राप्त
सिर्फ़ 25 साल की उम्र लेकिन विक्रम की सोच कहीं आगे की थी. चेहरे पर किसी तरह के डर और घबराहट का नामोनिशान नहीं था. प्वाइंट 4875….इस चोटी के दोनों तरफ़ खड़ी ढलान थी. दुश्मनों की नाकाबंदी ने और भी मुश्किलें बढ़ा दी थी. प्वाइंट 4875 में जो घमासान हुआ, वो बेहद ख़तरनाक था. कैप्टन बत्रा ख़ुद आगे से लीड कर रहे थे.. आमने-सामने की लड़ाई में उन्होंने पांच दुश्मन सैनिकों को मार गिराया…गोली और बमबारी में गंभीर ज़ख़्मी होने के बाद भी उन्होंने दुश्मन की ओर ग्रेनेड फेंके. ये मुश्किल जंग अंत में भारतीय सेना जीत गई…लेकिन कैप्टन विक्रम बत्रा वीरगति को प्राप्त हुए.
अपने जूनियर को बचाने गए थे
अपने बेटे की शहादत को याद करते हुए पिता गिरधारी लाल बत्रा का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. बताते हैं कि विक्रम की कंपनी ने प्वायंट 4875 के लिए ख़ुद को वॉलंटियर किया. जब उनका एक जूनियर नवीन ज़ख़्मी होता है तो इन्होंने फ़ैसला लिया कि उसको लाना है. सूबेदार जाने के लिए तैयार होते हैं, लेकिन वो उन्हें रोक देते हैं और खुद चले जाते हैं. उसको सुरक्षति मोर्चे पर पहुंचाते हैं, और खुद डट जाते हैं. वहां 5 लोगों को अकेले मारते हैं. एक पाकिस्तानी सैनिक इन्हें गोली मार देता है. वो शहीद हो जाते हैं. इसके बाद पूरी टीम पूरी ताकत से हमला कर देती है, और मिशन पूरा कर देती है.
कौन-कौन है परिवार में
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था. पिता गिरधारी लाल बत्रा सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थे. मां कमलकांता बत्रा भी अध्यापक थीं. दो बेटियों के बाद जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ था
उन्हें प्यार से माता-पिता लव और कुश कहते थे. लव यानि विक्रम और कुश यानि उनके जुड़वां भाई विशाल. गिरधारी लाल बत्रा बताते हैं, दो बेटियों के बाद जुड़वा बच्चे हुए…हमने उनका नाम प्यार से लव कुश रखा..बाद में स्कूल में विक्रम और विशाल रख दिए. दोनों ही बच्चे पढ़ाई खेल में बहुत बेहतरीन..विक्रम पढ़ाई में हमेशा फ़र्स्ट, सभी गेम्स खेलते थे…टेबल टेनिस बहुत शानदार खेलते थे..
मर्चेंट नेवी नहीं सेना चुनी
घरवाले बताते हैं कि बचपन से ही विक्रम बहुत साहसी थे. वीरता की कहानियां सुनना पसंद था. 12वीं के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में ग्रैजुएशन में एडमिशन लिया. अपने कॉलेज के दिनों में वो एनसीसी में शामिल हो गए. उन्होंने सी सर्टिफ़िकेट के लिए क्वालिफाई किया. 1995 में अपने कॉलेज के दौरान, उन्हें एक शिपिंग कंपनी के साथ मर्चेंट नेवी के लिए चुना गया था, लेकिन उन्होंने अपना इरादा बदल दिया…उसके बजाए सेना में जाने की तैयारी की. सीडीएस की तैयारी शुरू की. 1996 में उन्होंने CDS की परीक्षा दी और इसमें उनका चयन हुआ. 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर लेफ़्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली. उनकी नियुक्ति 13 जम्मू-कश्मीर राइफ़ल्स में हुई थी. 1999 में उन्होंने कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई दूसरे प्रशिक्षण लिए.शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के ख़ौफ़ से दुश्मन कांपते थे. ये दिल मांगे मोर फेवरेट और प्रसिद्ध कोट उन्हीं का है. मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किए गए. प्वाइंट 4875 को ‘बत्रा टॉप’ नाम दिया गया.