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बिना तलाक लिए महिला ने कर ली दूसरी शादी, सुप्रीम कोर्ट ने सुनाई ये सजा




नई दिल्ली:

एक महिला को दो शादी करने के चलते सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने की सजा सुनाई है. इतना ही नहीं महिला के दूसरे पति को भी दोषी पाते हुए 6 महीने की सजा सुनाई गई है. इस महिला ने अपनी पहली शादी के वैध रहते हुए दोबारा शादी कर ली थी. महिला के पहले पति ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई थी. पहले पति ने इस मामले पर मद्रास हाईकोर्ट के अगस्त 2022 के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. दरअसल मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने महिला और उसके दूसरे पति को “अदालत उठने तक कारावास” की सजा सुनाई थी. इस सजा को सुप्रीम कोर्ट ने “ छोटे कीड़े के काटने जैसी सजा” बताया था और कहा था कि अपराध की गंभीरता के हिसाब से ये अपर्याप्त थी.

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने महिला और उसके दूसरे पति को दो शादी करने के जुर्म में छह-छह महीने के कारावास की सजा सुनाई. साथ ही अदालत ने एक असामान्य, किन्तु विचारशील सजा योजना तैयार की, जिसमें यह भी ध्यान दिया गया कि दंपती का एक छह वर्ष का बच्चा भी है. अदालत ने व्यवस्था दी कि बच्चे की देखभाल को ध्यान में रखते हुए दोनों एक के बाद एक करके सजा काटेंगे. जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने आदेश दिया कि दूसरे पति को अपनी सजा काटने के लिए पहले आत्मसमर्पण करना चाहिए. उसकी सजा पूरी करने के बाद, महिला को अपनी सजा काटने के लिए दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करना होगा. सजा सुनाने के इस चरणबद्ध तरीके से यह सुनिश्चित होगा कि एक माता-पिता बच्चे के साथ रहे जबकि दूसरा जेल की सजा काट रहा हो. 

कम सजा देना उचित नहीं 

पीठ ने ऐसी सजा देने के महत्व पर जोर दिया जो अपराध की गंभीरता, अपराध के घटित होने की परिस्थितियों तथा अपराधी के पिछले आचरण को प्रतिबिंबित करती हो. इस बात पर जोर देते हुए कि द्विविवाह जैसे गंभीर अपराधों के लिए नरम सजा का समाज पर व्यापक रूप से हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है. अदालत ने कहा ऐसे अपराध के लिए सजा देने के मामले में, जिसका समाज पर प्रभाव पड़ सकता है, अभियुक्त को दोषी ठहराए जाने के बाद छोटे कीड़े के काटने जैसी सजा देकर छोड़ देना उचित नहीं है.

“समाज के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए”

अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि दंड प्रदान करने में आनुपातिकता का नियम समाज में व्यवस्था और न्याय बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है. साथ ही अदालत ने कहा कि सजा देते समय सभी प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए तथा केवल अपराध के बाद से बीत चुके समय से प्रभावित नहीं होना चाहिए. कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि नागरिक व्यवस्था और कानूनी प्रणाली में सामाजिक विश्वास बनाए रखने के लिए अपराध की गंभीरता के अनुपात में उचित दंड आवश्यक है. पीठ ने कहा कि पीड़ित के अधिकारों पर विचार करते समय समाज के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

अदालत ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में अधिकतम सात वर्ष की जेल की सजा का प्रावधान है, जबकि अपराध केवल विवाह करने वाले व्यक्ति के पति या पत्नी द्वारा और न्यायालय की अनुमति से समझौता योग्य है. निश्चित रूप से, भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 82 के तहत दंडात्मक प्रावधान को बरकरार रखा गया है, जिसने 1 जुलाई से आईपीसी की जगह ले ली है.

पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि जब यह पाया जाता है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत अपराध गंभीर अपराध है, तो इस मामले में मौजूद परिस्थितियां हमें यह मानने के लिए बाध्य करती हैं कि ‘अदालत उठने तक कारावास’ का प्रावधान उचित सजा नहीं है, जो सजा देने में आनुपातिकता के नियम के अनुरूप है.

पहले पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करना गलत

यह मानते हुए कि महिला और उसके दूसरे पति को दी गई सजा “अत्यधिक नरम” थी, पीठ ने यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य पाया कि महिला ने अपने दूसरे पति से बच्चे को जन्म देने से दो महीने पहले तक अपने पहले पति से गुजारा भत्ता प्राप्त किया था.

पीठ ने कहा कि यह स्पष्ट है कि आरोपी महिला ने दूसरे आरोपी से विवाह किया, जबकि पहले पति) और उसके बीच विवाह कायम था.  इतना ही नहीं, विवाह कायम रहने के दौरान उसने दूसरे आरोपी से एक बच्चे को भी जन्म दिया. सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि इस मामले में अनुचित नरमी बरती गई. इसके बाद कोर्ट ने महिला और उसके दूसरे पति की सजा बढ़ाकर छह महीने कर दी. साथ ही शर्त रखी कि उन्हें एक के बाद एक जेल में रहना होगा ताकि बच्चे के साथ हमेशा एक माता-पिता ही रहे. बेंच ने स्पष्ट किया कि इस व्यवस्था को मिसाल के तौर पर नहीं माना जाएगा क्योंकि यह इन विशेष परिस्थितियों में आदेश दिया गया है.

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