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'नरक' में उतरकर 'मौत' ढोना…. 10 साल पहले बैन के बाद में क्यों जारी है ये प्रथा, आखिर कब मिलेगी निजात?



भारत में हाथ से मैला ढोने पर प्रतिबंध लगाए जाने के दस साल बाद भी आज बड़ी संख्या में लोग इस काम में लगे हुए हैं. आंकड़ों की मानें तो इस प्रथा में लगे हुए लोगों में से करीब 97 प्रतिशत दलित हैं. हाथ से मल-मूत्र ढोने की प्रथा यानी Manual Scavenging को साल 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था. बावजूद इसके आज भी बड़ी संख्या में लोग इस काम को कर रहे हैं. 

एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी डेटा के अनुसार भारत के कुल 766 जिलों में से अब तक सिर्फ 530 जिलों ने ही खुद को मैला ढोने से मुक्त घोषित किया है. यानी देश के 31 फीसदी जिलों में आज भी हाथ से मैला ढोने का सिलसिला जारी है. सवाल ये है कि इस नरक के कुएं से हमें आजादी कब मिलेगी?

साल 2013 में मैनुअल स्केवेंजिंग यानी हाथ से मैला उठाने वाले नियोजन प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम लाया गया था. जिसमें केंद्र सरकार ने इसकी परिभाषा तय की है. इस परिभाषा के अनुसार ” कोई भी व्यक्ति जिससे स्थानीय प्राधिकारी हाथों से मैला ढुलवाने का काम करवाए, मैला साफ कराए, ऐसी खुली नालियां या गड्ढे जिसमें किसी भी तरह से इंसानों का मल-मूत्र इकट्ठा होता हो उसे हाथों से साफ़ कराए तो वो शख़्स ‘मैनुअल स्केवेंजर’ कहलाएगा.”

हर 10 में से 3 जिलों में आज भी कुछ लोग बाकी इंसानों का मल-मूत्र, सीवर और सेप्टिक टैंक की गंदगी अपने हाथों से या सिर पर ढो रहे हैं. वो अपनी जान को दांव पर लगाकर ये काम करते हैं. ये जानकारी केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में दी. उन्होंने कहा कि देश के 766 में से 530 जिले मैला ढोने से मुक्त हो गए हैं. लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू देखना ज़रूरी है. 236 जिलों में इंसानी मैला ढोने की ये कुप्रथा जारी है, जो इंसान होने की गरिमा को तार-तार करती है. 

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2018 से लेकर अब तक भारत में 339 लोगों ने सीवर और सेप्टिक टैंकों में इंसानी मैला साफ करने की कोशिश में जान गंवाई. सीवर और सेप्टिक टैंकों में सफाई के लिए किसी भी इंसान के लिए उतरना किसी मौत के कुएं में उतरने के बराबर है. आए दिन खबरें आती हैं कि सीवर और सेप्टिक टैंक में उतरे सफाईकर्मी जिंदा ऊपर नहीं आए. उन्हें निकालने के लिए कोई और भी गया तो उसकी भी जान चली गई.

इन सीवर और सेप्टिक टैंकों के अंदर भयानक गंदगी से इतनी ज़हरीली गैसें पैदा होती हैं कि उनमें उतरते ही इंसान का दम घुट जाता है. वो खुद को बचाने के लिए आवाज तक नहीं लगा पाता. सवाल ये है कि कब तक हम इन नरक जैसे कुओं की सफाई के लिए इंसानों को मौत के मुंह में धकेलते रहेंगे? 

भारत में दशकों से जड़े जमाए जाति प्रथा के कारण इस तरह के नुकसानदेह काम ज्यादातर उन लोगों को करने पड़ते हैं, जो जाति व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर हैं. हाथ से इंसानी मल को साफ करने या कहीं और फेंकने के कारण श्रमिकों को हैजा, हेपेटाइटिस, टीबी, टाइफाइड और इसी तरह की अन्य बीमारियों का शिकार होने का खतरा बना रहता है. 

सीवर और सेप्टिक टैंकों की मशीनों से सफाई के लिए केंद्र सरकार ने 2022 में NAMASTE यानी National Action for Mechanised Sanitation Ecosystem नाम से एक योजना भी लागू की. अब सीवर, सेप्टिक टैंकों की सफाई मशीनों से ही होनी है, तो फिर ये मौतें क्यों. 

पिछले पांच साल में सीवर और सेप्टिक टैंकों में मैला ढोने से हुई मौतों पर एक नजर:- 

2018 – 67 मौतें
2019-117 मौतें            
2020-22 मौतें         
2021-58 मौतें
2022-66 मौतें
2023 (अब तक) – 9 मौतें

मैला ढोने से किस राज्य में कितनी मौतें?
हरियाणा – 17
महाराष्ट्र – 15
तमिलनाडु – 13
उत्तर प्रदेश – 8
दिल्ली – 6
गुजरात – 4
आंध्र प्रदेश – 3
कुल – 66

इस प्रथा को खत्म करने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है? 
-‘द प्रॉहिबिटेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट-2013’ के तहत हाथ से मैला ढोने पर पूरी तरह प्रतिबंध है. 
-अगर किसी सफाई कर्मचारी की सीवर सफाई के दौरान मौत हो जाती है, तो सरकार की तरफ से उसके परिवार को 10 लाख रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है. 
-इसके अलावा कोई मजदूर इस काम को छोड़ना चाहता है तो सरकार की तरफ से 40,000 रुपये की एकमुश्त नकद देने की योजना बनाई गई है. 
-इसके अलावा कौशल विकास प्रशिक्षण और स्व-रोज़गार परियोजनाओं के लिये पूंजीगत सब्सिडी प्रदान की जाएगी. 



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