देश में एक साथ चुनाव कराना नहीं है समस्याओं का समाधान, लोकतंत्र के लिए जनता की राय जरूरी
<p style="text-align: justify;">प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कैबिनेट की वन नेशन, वन इलेक्शन के प्रस्ताव मुहर लग गई. इस प्रस्ताव पर ऐसे वक्त पर मंजूरी दी गई है जब दो जगह जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में चुनाव होने जा रहा है. बुधवार को कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी बैष्णव ने बताया कि शीतकालीन सत्र में इसको लोकसभा में पेश किया जाएगा. केंद्र सरकार ने कैबिनेट के जरिये वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर काम करने की कहा थी.</p>
<p style="text-align: justify;">देश में जब साल 1950 में जब चुनाव शुरु हुए थे, उस वक्त राज्य और केंद्र यानी विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ आयोजित होते थे. उस समय बूथ स्तर तक एक साथ ही चुनाव आयोजित कराए जाते थे. इसके बाद से ये क्रम चलता रहा, कई बार कुछ समस्याएं सामने आती रही. उस समय केंद्र की सरकार कई राज्यों में केंद्र का शासन लागू कर देते थे. कई बार ये भी बाते सामने आ चुकी है कि विधायकों और सांसदों की खरीद-बिक्री और कई अन्य कारणों से समय पर और एक साथ चुनाव नहीं हो पाते थे. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>एक साथ चुनाव कराने के इतिहास </strong></p>
<p style="text-align: justify;">1959 में केरल में चुनाव होने के बाद जब सीपीआई की सरकार बनी, तब केंद्र का शासन लगाकर वहां के शासन को तोड़ दिया गया. इसके बाद जब चुनाव हुआ तो दोबारा भी सीपीआई ने ही जीत दर्ज की. लेकिन, साल 1967 में कांग्रेस पार्टी को हर जगह पर बहुमत नहीं मिली, और अलग-अलग राज्यों में अलग तरह की सरकार बनी. उस समय दल-बदल का मामला भी सामने आया, जिससे कई सरकारें आती जाती रहीं. इसके कारण चुनाव का क्रम भी बदलता रहा. पश्चिम बंगाल में सीपीआई, लेफ्ट और बंगाल कांग्रेस और अन्य लोगों की सरकार बनने लगी.</p>
<p style="text-align: justify;">केंद्र की दखलंदाजी के कारण वहां पर सरकारें ठीक से नहीं चल पाती थी. कई बार स्पीकर को रोका जाता था, कई बार स्पीकर खुद से विधानसभा को भंग कर देते थे. इस तरह की समस्याएं पश्चिम बंगाल के साथ देश के लगभग सभी राज्यों में आते रहे. 1967 के बाद से चुनाव राज्यों और केंद्र के बीच में अलग-अलग चुनाव होने लगे. 1972 में लोकसभा के लिए चुनाव होना था, लेकिन उस समय की पीएम इंदिरा गांधी ने समय से पहले चुनाव करवाया. इसके कारण 1971 में चुनाव हुए और राज्यों और केंद्र के बीच में होने वाले चुनावों के शेड्यूल बिगड़ गया. ये सारे ऐतिहासिक इसके डाटा है और अब सरकार फिर से इसी तरफ जाने की प्लानिंग कर रही है. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अमेरिका में भी एक साथ चुनाव नहीं </strong></p>
<p style="text-align: justify;">मुंबई और राज्यों के संघ का एक जजमेंट 1995 में जो दिया गया था, जिसमें कर्नाटक की सरकार को केंद्र सरकार ने हटाई थी और वहां पर केंद्र का शासन लागू कर दिया था. बाद में ये मामला बंबई हाईकोर्ट में गया तो उस समय ये जजमेंट आया कि केंद्र सरकार के पास ऐसी कोई शक्तियां नहीं है कि बिना किसी मतलब के राज्य की सरकारों को भंग कर दिया जाए. लोकसभा और विधानसभा के अलावा सभी चुनाव एक साथ होंगे तो ये बात ठीक है, लेकिन किसी वजह से सरकार गिर जाती है, उस कंडीशन में क्या किया जाएगा? क्या उसको चुनाव तक खींचता रहा जाएगा, या फिर उसको केंद्र का शासन होगा. ये एक समस्या है.</p>
<p style="text-align: justify;">अमेरिका में सबसे पुराना लोकतंत्र हैं, वहां पर भी राज्य-केंद्र के एक साथ चुनाव नहीं आयोजित किए जाते हैं. भारत में भी ये दोनों अलग-अलग ही रहे तो ज्यादा ठीक होगा. केंद्र, राज्यों से किस तरह का संबंध रखता है. फॉरेन पालिसी को ध्यान में रखा जाता है. उसकी आर्थिक स्थितियों को लेकर क्या विचार है, ये सब मुद्दे केंद्र के चुनाव में होते हैं, लेकिन राज्यों के चुनाव में काफी छोटे मुद्दे होते हैं. तो क्या वो एक साथ दोनों चुनाव में लाए जा सकते हैं. राज्य के लोगों की अलग परेशानियां होती है, जिनको राजनीतिक पार्टियां मुद्दा बनाती है. जून महीने में लोकसभा के चुनाव का रिजल्ट आया, उससे पहले कई राज्यों में एक साथ ही इलेक्शन कराया गया था. उस तरह के परिणाम केंद्र के चुनाव और राज्यों के चुनाव के परिणाम में एक जैसे हों.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>निजीगत फायदे के लिए एक साथ चुनाव </strong></p>
<p style="text-align: justify;">वन नेशन, वन इलेक्शन एक राजनीतिक सोच हो सकती है. राजनीतिक पार्टियां कई बार अपने हिसाब से सोचती है. राजनीतिक पार्टियों को ये लगता है कि अगर वो एक साथ चुनाव कराती है तो उसका वर्चस्व कायम रहेगा, जो कि लोकसभा चुनाव के समय में रहता है. वन नेशन वन इलेक्शन के लिए टाइमिंग एक बड़ा समस्या बनते रहेगा, ये जरूरी नहीं है कि हर बार राज्य और केंद्र की चुनाव का समय एक साथ तय होता रहे. कई बार राज्यों में ऐसे समीकरण बनते हैं जिससे समय से पहले चुनाव संभव हो जाता है. राज्य के चुनाव में अलग मुद्दे होते हैं, और केंद्र के चुनाव में अलग मुद्दा होता है.</p>
<p style="text-align: justify;">इसलिए ये अलग तरीके से मामला चलते रहता है, इस वजह से कोई परेशानी नहीं होना चाहिए. सरकार की ओर से ये दलील दी जाती है कि आदर्श आचार संहिता लगने के कारण कई बार डिसीजन लेने में दिक्कत होती है, इसलिए ऐसा करना जरूरी है, लेकिन राज्यों के चुनाव में काफी कम समय के लिए ये लागू होता है और इससे केंद्र के डिसीजन में कोई दिक्कत नहीं होती है.</p>
<p style="text-align: justify;">इसलिए सरकार की ओर से जो दलीलें दी जा रही है वो कोई वैलिड नहीं है. जनतंत्र में जिस प्रकार से दौर चल रहा है, अलग-अलग समय में राज्यों का चुनाव आयोजित किया जाता है, इससे सरकारों की जवाबदेही तय होती है. चुनाव सरकारों की जवाबदेही की प्रक्रिया को बनाये रखने की एक प्रक्रिया है. इसलिए बार बार चुनाव होना लोकतंत्र के लिए अच्छाई है.</p>
<p style="text-align: justify;">अभी मात्र कैबिनेट ने इसके लिए डिसीजन लिया है, अभी ये मामला शीतकालीन सत्र में लोकसभा में पेश किया जाएगा, जहां चर्चा होगी. उसके बाद आगे की ओर ये मामला बढ़ेगा. सिर्फ कैबिनेट के डिसीजन आने के बाद मामला तय नहीं हो जाता बल्कि राज्यों में अलग-अलग पार्टियां है. राज्यों में रीजनल पार्टियों का अपना एक अलग महत्व है. ये लोकतंत्र के लिए अच्छा है. कई राज्यों में छोटी पॉलिटिकल पार्टियां हैं, उनको ये पता है कि वहां की समस्याओं से किस प्रकार से निपटने के लिए काम करना है. रीजनल पार्टी का होना ही लोकतंत्र के लिए अच्छा कदम है. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आसान नहीं एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया </strong></p>
<p style="text-align: justify;">केंद्र की सरकार ये बात कैबिनेट में लाई है. सरकार में शामिल घटक दल भले ही समर्थन करते हों, लेकिन जब तक देश के सभी राज्य और सभी राजनीतिक पार्टियां इसका समर्थन नहीं करती है तब तक इसको प्रयोग नहीं लाना चाहिए. चुनाव के प्रक्रिया एक से ज्यादा बार होती है, वो जनता और लोकतंत्र दोनों के लिए ठीक होती है. वन नेशन वन इलेक्शन में बढ़ने के लिए कई समस्याएं सामने आने वाली है. इसके लिए काफी वित्तीय सहयोग चाहिए.</p>
<p style="text-align: justify;">इसके साथ चुनाव आयोग को काफी तैयारी करनी होगा. सभी राज्यों का सहयोग और सभी राजनीतिक पार्टियों का सहयोग होना चाहिए. इसके साथ सुरक्षा व्यवस्था के उपाय के साथ ईवीएम आदि की चीजें भी व्यवस्था करनी होगी.</p>
<p style="text-align: justify;">चुनाव आयोग को केंद्र का चुनाव और राज्य का चुनाव कराने के लिए अलग-अलग वोटर लिस्ट ही बनाने होंगे. सारी समस्याओं का समाधान एक साथ चुनाव कराना है. सरकार ने अभी सिर्फ कैबिनेट में मंजूरी दी है, इस पर पुनर्विचार भी कर सकती है. देश में अलग-अलग समय पर चुनाव की प्रक्रिया को मान लिया है तो फिर उस प्रक्रिया को बदलने की क्या जरूरत है?</p>
<p style="text-align: justify;">नये तरह की परेशानियां भी अभी सामने आएंगी. किसी एक तरह की एकरूपता लाने का प्रयास कभी भी संभव नहीं हुआ है, क्योंकि भारत विविधताओं वाला ही देश है. चुनाव एक साथ कराया जा सकता है, लेकिन देश के विविधता को नहीं हटाया जा सकता. 1977 के चुनाव के बाद से देखा गया है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों का निर्णय कभी एक जैसा नहीं रहा है. दक्षिण भारत के लोग का अलग ही विचार रहता है. देश में चुनाव की जो प्रक्रिया चल रही है, फिलहाल इसको चलते रहने देना चाहिए. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]</strong></p>
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