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जूते से हम भारतीयों को कैसी-कैसी उम्मीदें होती हैं, कंपनियों को यह भी समझना चाहिए



खबर है कि अब देश के लोग अपने पैरों के साइज के हिसाब से चुनकर एकदम परफेक्ट जूते पहन सकेंगे. भारतीयों के लिए अपना शू साइजिंग सिस्टम आएगा. अब साइज की खातिर लोगों को UK, US की ओर नहीं देखना पड़ेगा. लेकिन बात केवल जूते के साइज की नहीं है. जब नया मानक आ ही रहा है, तो कंपनियों को ठीक-ठीक यह भी पता होना चाहिए कि जूते से हम भारतीयों की कैसी-कैसी उम्मीदें जुड़ी होती हैं.

स्थायित्व का सवाल

साइज थोड़ा इधर-उधर भले ही चल जाए, पर सबसे जरूरी बात है जूते का टिकाऊ होना. जूते ऐसे हों, जो पूरे पांच साल साथ निभाएं. इन्हें मध्यावधि में खरीदने की जरूरत न पड़े. इस मद में बार-बार खर्च न करना पड़े. सिर्फ चमक-दमक वाले न हों, बल्कि अंदर से मजबूत और आरामदायक हों. ज्यादा चचर-मचर करने की जगह शांति से अपना काम करें. हां, मौके के मुताबिक इतनी आवाज जरूर निकाल सकें कि पड़ोस के कुत्ते इधर ताकने की जुर्रत न करें.

जूते का बेसिक फिजिक्स

जूते को लेकर विज्ञानियों के अलग-अलग सिद्धांत हैं. आज तक यह तय नहीं हो पाया कि कौन-सा नियम सही है. एक सिद्धांत कहता है कि अगर आप ज्यादा चलेंगे, तो आपके जूते कम चलेंगे. आप कम चलेंगे, तो जूते ज्यादा चलेंगे. माने जूते की आयु इंसान द्वारा पैदल तय की गई दूरी के व्युत्क्रमानुपाती (Inversely Proportional) होती है. एक हिसाब से यह ठीक बात है.

 

लेकिन एक दूसरा सिद्धांत इसको पूरी तरह नकार देता है. इसका कहना है कि आप जितना चलेंगे, आपका जूता ठीक उतना ही चलेगा. ऐसा कहीं देखा है कि आप 100 कदम नाप दें और आपका जूता 10-20 कदम पीछे रह जाए या आपसे आगे निकल जाए? खैर, अब कंपनियों के ऊपर जिम्मेदारी है. वे यूजर मैनुअल में साफ-साफ बताएं कि उनके जूते किस सिद्धांत पर बनाए गए हैं.

चिप लगाना मत भूलिए

हम यहां जूते में चिप लगाने की बात कर रहे हैं, चिप्पी की नहीं. चिप्पी तो बरसों से लगवाते रहे हैं. उपयोगितावाद भी कोई चीज होती है, जानते हैं. आइडिया यह है कि कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग के वक्त ही हर जूते-चप्पल में एक चिप फिट कर दें. चिप ऐसी हो, जिससे जूते की लोकेशन को आसानी से ट्रेस किया जा सके. अफसोस कि ऐसा नए नोटों में नहीं हो पाया! लेकिन जूतों में चिप लगाना शायद ज्यादा मुश्किल काम न हो.

इससे कई फायदे होंगे. चिप की वजह से जूते पर बुरी नजर डालने वाले असामाजिक तत्त्व सामाजिक बनने को प्रेरित होंगे. सफर सुहाना होगा. मठ-मंदिरों में ध्यान लगाने में सबको सहूलियत होगी. ऑफिस टाइम की भागमभाग में जूते खोजने पर ज्यादा वक्त कुर्बान न होगा. जूते को लेकर कई समस्याएं तो ग्लोबल लेवेल की हैं. हां, शादी में जूते चुराने की सिनेमाई रस्म का क्या होगा, ये समाज अभी ही तय कर ले.

जूता लेने का पर्पस
ऐसा देखा गया है कि लोग जूते का इस्तेमाल कई तरह के कामों में करते आए हैं. इसलिए बिक्री के समय ही ग्राहकों से एक अंडरटेकिंग ले लिया जाना चाहिए कि इस जूते का इस्तेमाल सिर्फ पहनने में किया जाएगा. खाने-खिलाने की कई चीजें धरती पर पहले से मौजूद हैं. स्वागत और शिष्टाचार जताने के और भी तरीके हैं.

हालांकि डिमांड के हिसाब से कंपनियों को बाकी मकसद के लिए भी जूते बनाने और बेचने की छूट मिलनी चाहिए. ज्यादा टैक्स लेकर. इससे कोष भी भरता रहेगा. कंपनियों को चाहिए कि वे ऐसे डिमांड वाले जूते का वजन इतना जरूर रखें कि ये सुगमता से हवा में ज्यादा दूरी तय कर सकें. लक्ष्य से भटकाव कम से कम हो. लेकिन गैरजरूरी माल्यार्पण या सभ्य लोगों की सभा में इसकी फेंका-फेंकी की सारी जिम्मेदारी जूते के असली मालिक की हो. अब समझे, जूतों में चिप लगवाने पर इतना जोर क्यों है?

जूते का दर्शन

वैसे तो जूते साधुवाद के पात्र होते हैं. इनका मौलिक दर्शन है कि खुद कष्ट सहो, औरों को भरपूर आराम दो. पर बाद के दौर में जूतों को कलियुग की हवा लग गई. अब इनका दर्शन है कि गुण छोड़ो, दर्शनीय बनो. भीतर से कमजोर ही सही, पर बाहर से चमकदार बनो. फैशनपरस्त बनो, नहीं तो आउटडेटेड समझे जाओगे. ज़मीर नहीं, जूतों से ही सभा-सोसायटी में तुम्हारा व्यक्तित्व नापा जाएगा.

जूते बनाने वाली कंपनियां ये सब जानती हैं, इसलिए इनकी कम चर्चा की गई है. कंपनियां बस ये देख लें कि नए जूतों में जब तक चिप न लग जाएं, आधार लिंकिंग से काम चल जाएगा क्या? कीमत की चिंता हम ग्राहकों पर छोड़ दीजिए. जूते तो होते ही बेशकीमती हैं, क्योंकि जूतों से ही तो हमारी कीमत है!



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