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कश्मीर डायरी : घाटी में चल रही है किसकी ‘हवा’, वोटर के मन में आखिर है क्या



नई दिल्ली:

जम्हूरियत की ‘हवा’ से एक बार फिर जन्नत की फिजा गुलजार होने वाली है.घाटी में लोकतंत्र की वापसी कोई सामान्य सी घटना नहीं बल्कि कश्मीरियों के लिए वो उम्मीद है जिसके सहारे अब वो अपनी तकदीर बदलने का दम भर सकते हैं. जम्मू-कश्मीर में होने वाला आगामी विधानसभा चुनाव बीते कई चुनाव से बिल्कुल ही अलग है. NDTV आपको जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव से जुड़ी हर छोटी बड़ी अपडेट देने जा रहा है. इस कड़ी में आज हम आखिर घाटी की जनता के मन में क्या चल रहा है और उनके लिए इस चुनाव के क्या मायनें हैं ये बताने जा रहे हैं. 

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इस बार के चुनाव से पहले जो सबसे बड़ा बदलाव दिख रहा है वो है वहां की जनता का मूड. जनता पहले के चुनावों के मुकाबले इस बार दिल्ली की तरफ नहीं देखती दिख रही है. और ये एक बड़ा बदलाव है. आज तक जब भी घाटी में चुनाव हुए तो वहां की जनता पहले ये देखती थी कि वहां की बड़ी पार्टियों को दिल्ली में बैठी किस राजनीतिक पार्टी से समर्थन मिल रहा है. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं है. जनता इस बार नए विकल्प तलाशने की तैयारी में दिख रही है. जनता अब दिल्ली के समर्थन से सरकार बनाने वाली पार्टियों से इतर भी स्थानीय पार्टियों पर दांव खेलने के मूड में दिख रही है. इसकी एक वजह ये भी है कि घाटी की जनता ये माने चुकी है कि दिल्ली के पास अब उनके लिए कोई रोड मैप नहीं है. 

अलग पहचान पाने के लिए आगे बढ़ेगी आवाम

आलम कुछ यूं है कि यहां की जनता बिजली, सड़क और पानी जैसे अहम मुद्दों को छोड़कर अब अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिशो में फिर जुट गए हैं. जनता के मूड को वहां की राजनीतिक पार्टियां भी भांप चुकी हैं. यही वजह है कि राज्य की राजनीतिक पार्टियां स्वाभिमान की वापसी और राज्य का दर्जा बहाल करने जैसे मुद्दे को प्रमुखता से उठा रही हैं. नेशनल कांफ्रेंस ने तो अपने मैनिफेस्टो का नाम ही dignity identity and development रख दिया है. वहीं, पीडीपी final resolution की मांग कर रही है. 

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जनता दे रही है राजनीतिक पार्टियों को बड़ा संदेश 

कश्मीर की आवाम जम्हूरियत के स्वागत के लिए पूरी तरह से तैयार दिख रही है. यही वजह है कि अब आवाम का अंदाज भी बदला-बदला नजर आ रहा है. आलम कुछ यूं है कि कश्मीर की आवाम ने ये साफ कर दिया है कि वो उन लोगों से कोई वास्ता नहीं रखेंगे जिनका बड़ी राजनीतिक पार्टियों से संपर्क होगा. यानी इससे ये तो साफ है कि जनता अब नए लोगों और नई पार्टियों को मौका देने की तैयारी में है.

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स्थानीय पार्टियों का भी साथ छोड़ रहे नेता

चुनाव से पहले स्थानीय पार्टियों का हाल बुरा दिख रहा है. इनके नेता जनता का मन टटोल चुके हैं और उन्हें पता है कि अगर उन्होंने समय रहते बड़े फैसलने नहीं लिए तो इस चुनाव में उन्हें शायह ही जीत हासिल हो.यही वजह है कि अपनी पार्टी के कई नेता चुनाव से ठीक पहले पार्टी का साथ छोड़कर जा चुके हैं. हाल ही में ताजा मिशाल श्रीनगर के मेयर जुनैद मट्टू की है. ऐसा माना जा रहा है कि अब वह अपनी पार्टी का साथ छोड़कर जल्द ही बीजेपी में शामिल हो सकते हैं. 

दूसरी तरफ़ पीपल कॉन्फ़्रेंस भी अपनी हालत संभल नहीं पा रही है. गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी का भी कुछ ऐसा ही हाल दिख रहा है. गुलाम नबी आजाद तो पहले ही कह चुके हैं कि वह इस बार के चुनाव में अपनी पार्टी के लिए भी प्रचार नहीं कर पाएंगे. हालांकि, उन्होंने इसके लिए अपने स्वास्थ्य का हवाला दिया है.





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