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अपर्णा कौर के चित्र और उनमें समाहित कथाएं


अपर्णा कौर के बनाए चित्र देखकर कोई न कोई स्मृति आकार लेने लगती है. जैसे कोई वस्तु या कोई विचार एक अनंत नींद से अचानक जाग गया हो और यथार्थ में आकर सहमा हुआ अपने आस-पास को देख रहा हो, उसे महसूस करने की क्षमता को विकसित कर रहा हो. अपर्णा के बनाए खूबसूरत चित्रों की यात्रा एक लंबी कहानी सी प्रतीत हुई और ‘लव बियॉन्ड मेजर्स’ तक आते-आते मैंने यह महसूस कर लिया था रंगों का भी अपना संगीत होता है.

‘म्युसेस एंड मदर्स’ चित्र में अगर पीत रंग का सृजन एक स्वप्निल सत्य है तो उसकी परछाई अंधेरे का कभी न सुनाई देने वाला एक अमर-गान है. चित्र की कथा में एक दर्शन है जहां धागे (निर्माण) और कैंची (विध्वंस) का संयोजित रूपक है और मेरी जिज्ञासा मुझे विवश करती है कि कैनवस के एक कोने से मैं उस चित्र में प्रवेश कर जाऊं और ठीक उस जगह लेट जाऊं जहां रंगों की द्वैत कथा प्रारंभ होती है. लेकिन तब मुझे भी धीमी गति से ख़ुद के द्वैत हो जाने की प्रक्रिया को उस दृष्टि से देखना होगा जैसे जीवन मृत्यु की ओर बढ़ता है और मृत्यु जीवन की ओर. तभी संगीत की एक (अद्वैत) रंगीन बूंद मेरी बांयी आंख के बहुत पास गिरती है. उस रंगीन बूंद से मेरे भीतर समय का आभास-बोध होता है. यह आभास-बोध मुझे अपर्णा के जीवन-दर्शन में  प्रवेश करने के मार्ग दिखाता है.

अब मैं उस चित्र में हूं
समूह की व्यापकता मेरे इर्द-गिर्द है और मैं अंधेरे की स्त्रियों को नींद के अवकाश के लिए चुनती (स्वीकारती) हूं और खुद भी अंधेरे की आकृति हो जाती हूं. हम अंधेरे की स्त्रियां बहुत मेहनत और लगन से बहुत विचार करके विध्वंस का सृजन कर रही हैं. हम भंवरों की भांति लगातार गुनगुना रही हैं. एक ही तरह का आहार ग्रहण कर रही हैं, अंधेरे में विश्वास की श्रेष्ठता का आंकड़ा भी लगातार अपनी अंधेरी किताब में दर्ज कर रही हैं. मौन के बलबूते हम मुस्कराने में असमर्थ हैं या फिर शायद हमने अपने भीतर अभी तक यह गुण विकसित नहीं किया है. काले रंग की एकाग्रता ने हमारे नयन-नक्श और दुविधाओं को ढंक लिया है.

अब मैं अंधेरा धागा हो गई हूं
मुझे ‘मैं’ का (बोध) ‘धागा’ दिखाई तो दे रहा है लेकिन उसी तरह से, जिस तरह अंधेरे समूह की स्त्री-आकृतियां. मेरा भाग्य एक हाथ से दूसरे हाथ की यात्रा तक पूर्ण हुआ जा रहा है. अंधेरी-स्त्रियों के हाथ में निर्वाण और मुक्ति का औज़ार है. उन्होंने इस औज़ार को अपनी योग्यता से अर्जित किया है. मेरा रक्त नहीं बहता. मेरे जुड़ाव की अस्थियां यहीं इसी अंधेरे जल में बहा दी जाती हैं. मैं चौकन्ना धागा हूं लेकिन चौंकना मेरा अनिवार्य गुण नहीं. यह उसी तरह से है कि मैं भय हूं लेकिन भयभीत होना मेरा लक्ष्य नहीं.

अब मैं एक भय (शून्य) हूं
मेरा विस्तार अनंत न होकर भी अनंत है. मेरा रंग अंधेरी-आकृतियों को प्रिय है. इसलिए वे मुझे अपनी लोरी का माधुर्य और पीड़ा के फलों से भरी टोकरी भिक्षा में दे देती हैं. मुझमें असंख्य कुंए हैं जिनमें न दिखाई देने वाली सीढ़ियां भी हैं. मैं अनवरत यात्रा (मृत्यु) की साक्षी हूं. चित्र में कैनवस के कोने से प्रविष्ट हुई ‘मैं’ की यात्रा भी इसी भय के चक्रव्यू में घिर गई है. ‘मैं’ उस ‘मैं’ को भय (शून्यता) से मुक्ति का कोई द्वार कैसे दिखा सकती हूं जबकि वह खुद यहां प्रविष्ट हुई थी. उसने भय के रंग से आत्मीयता गढ़नी चाही लेकिन उसे इस बात की धुंधली स्मृति है कि यह भय उसके भ्रूण में ही बो दिया गया था. जैसे कभी-कभी कोई मां अपनी संतान की आंखों के कोमल (अबोध) अनंत में भय की कीलें गाढ़ देती है.

मुझे चित्र से बाहर आने की इच्छा नहीं हो रही. यह बात अलग है कि अब तक कैंची (विध्वंस के सृजन) ने मेरा धागा काट दिया है और मैं अपने धागे का एक सिरा पकड़कर अंधेरी-आकृतियों के बीच न दिखाई देने वाली एक निहारिका बन जाती हूं.

लेकिन मैं अब भी चित्र में हूं. मैं खुद को चित्र के दूसरे हिस्से में धकेल देती हूं. यहां पीले रंग का अस्तित्व है. अस्तित्व से मुझे कई और बातें भी याद आती हैं, जैसे- मेरे जीवन में कुछ क्षणों का ‘होना’ इतना न होने समान था कि यह ‘होना’ भविष्य की संभावनाओं को तब तक कुरेदता रहा जब तक मैंने अपने अस्तित्व पर एक हैरानी भरी नज़र नहीं डाल दी. अब मुझे पीली उजली स्त्रियां सूर्य के समान प्रतीत हो रही हैं. एक दस्तक होती है भीतर और मैं उन ध्यानस्थ स्त्रियों की मुंदी हुई आंखों को छूना चाहती हूं. मैं उन्हें छूती हूं और हरसिंगार बन जाती हूं.

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मैंने अपना रंग बदल लिया
मेरे जिस्म पर चढ़ी काली पपड़ी अब उतरने लगी है. मैं इतनी हल्की हो गई हूं जैसे जल में तैर रही हूं. तैरते हुए मेरी आंखें उन उजली स्त्रियों की तरह बन्द हैं. मैं निर्मित हो रही हूं. उजली स्त्रियां बन्द आंखों से ही मेरा निर्माण कर रही हैं. उन्होंने धागा मेरी नाभि से जोड़ दिया है और मैं छोटी-सी मछली बन गई हूं. डूबती जा रही हूं. सांस का व्यवहार नहीं समझ पा रही. एक बिंदु बन गई हूं. सब मौन है. कोई दृश्य नहीं है लेकिन दृश्य बनाने के लिए कोई मनाही नहीं है.

मैं दृश्य (लीला) का निर्माण कर रही हूं
मैं उजली स्त्रियों के साथ एक नाव में सवार हो जाती हूं और जल के मध्य में हूं. सूर्य का ताप यहां भी है. मैं मुक्त हूं, स्वतंत्र हूं. लेकिन जल के भीतर जाते हुए केश लहूलुहान हो गए हैं. जल लाल रंग का हो गया है. जल के भीतर सांस रोककर नृत्य करना चाहती हूं, नृत्य की मुद्राओं से दृश्य रचना चाहती हूं. जैसे कभी-कभी चित्र अपने चित्रकार से मुक्त होना चाहता है और कोई भिन्न ही दृश्य बन जाता है. जैसे कभी-कभी रंग चित्रकार की आवाज़ का अंदाज़ा लगाते हैं और मसखरे बन जाते हैं.

स्वप्न के भीतर स्वप्न और अग्नि के भीतर अग्नि
उजली स्त्रियां आस्थावान हैं. कोमल अंगों की स्वामिनी हैं. वे जान रही हैं मेरी दुविधा कि मैं स्वप्न के भीतर स्वप्न देख रही हूं और अग्नि के भीतर अग्नि के दृश्य (लीला) का निर्माण कर रही हूं. मैं चित्र के भीतर ठीक उसी जगह आकर फिर से लेट जाती हूं जहां द्वैत का प्रारंभ होता है. मैं उजली और अंधेरी दोनों स्त्रियों से धागा अर्जित कर आई हूं और चित्रकार (अर्पणा) की आंखों में देखने लगती हूं.

2.

चित्रों की अन्तःकथाएं अपनी भाषा का निर्माण कई तरह के उपकरणों के साथ करती हैं. बीते जीवन के दुःख की स्मृतियों को जब जीवन और मृत्यु के बोध की सूक्ष्मता मिलती है तो वे अन्तःकथाएं रंगों का सानिध्य पाकर उसमें जीवन-दर्शन का एक बिंदु भी खोज लेती है. ‘वर्ल्ड गोज़ ऑन’ चित्र उसी रिक्तता (स्पेस) में एक समानांतर संसार के ‘होने’ का साक्षी है. अर्पणा के चित्रों में जीवन और मृत्यु के बीच एक पुल दिखाई देता रहता है. यह पुल समय के इस पार भी है और उस पार भी. यह समानांतर संसार प्रकृति समान ग्लानि रहित है. मैं यह भी जानती हूं कि चित्रकार भी यह समझता है कि एक अदृश्य धागा उनके अपने जीवन के प्रति दर्शन (आस्था) का प्रतीक भी है.

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‘वर्ल्ड गोज़ ऑन’ कृति में जहां मृत्यु का शोक जीवन के आसमान में पहुंचते हुए खुद को मृत्यु के बोझ से हल्का कर रहा है. वह वहां सफेद और जागा हुआ लग रहा है. और प्रकृति इस सत्य की ओर हैरान होकर नहीं देख रही बल्कि स्थिरता में है. जो उसका नैसर्गिक गुण भी है. सोचती हूं मैं अगर इस कृति को जीवन-मृत्यु के चक्र से परे देख पाती तो कुछ यूं कहती कि कुछ लोग अपनी नींद में स्वप्नों (दुःस्वप्नों) का खलल भी बर्दाश्त नहीं करते और कुछ लोग इतने अबोध (कुछ मायनों में क्रूर) होते हैं कि एक पल रुक कर थकी मछलियों से यह तक कहना पसंद नहीं करते कि क्या तुम प्यासी हो?

3.

‘अर्थ एंड स्काई’ जैसे मनुष्यता और साहस के मध्य एक-दूसरे का रक्षा-कवच.
अर्पणा का बनाया यह तैलचित्र सन 1993 का है. मनुष्य की आकृति भूरे पीले रंग में है जो धरती का सबसे ठोस (अपवाद रूप में उदार) रूप है और सफेद फरिश्ते के पंखनुमा बादल मनुष्य के शरीर, विचार और संशयों से दूर जाने (उड़ने) के लिए निर्भीक लेकिन बिना जल्दबाजी की कोशिश में है. एक ही समय में यह चित्र किसी सत्य के पारदर्शी भय का अहसास भी करा रहा है और छूटने की पीड़ा का मोह भी निर्मित कर रहा है और एक ऐसी दृष्टि का निर्माण कर रहा है जिसके पार जाने के लिए चित्र की आकृति के स्वप्नों को टटोलना आवश्यक होगा लेकिन यहीं पर मैं ठिठक जाती हूं कि उस आकृति के नेत्र तो हैं ही नहीं.

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दरअसल अभाव ही भाव (मेरे मित्र की उक्ति) है और वितृष्णा ही तृष्णा है.

4.

जब दुख एक क्लांति बन जाए तो भ्रांति के लिए किसी एक कोलाहल का सहारा लो…

शायद विषाद की अपनी रिक्तता और वृत्त होते हैं. उदासी के घोर काले पाखी सबसे छुपते हुए, बचते हुए सघन घेरों को चुनकर रिक्तियों के सजल लेकिन आनिश्चितताओं में डूबी आंखों में अपने प्राण बसा लेते हैं और आंखों के कोटरों में से झांकते रहते हैं. आप क्या सोचते हैं कि उदासी के स्वर नहीं होते या उनकी देह को किसी कोलाहल का जल डुबोता नहीं? कभी एक तिनका बनकर देखिए और जानिए कि यह कोलाहल दरअसल एक रतजगे के समान है जिसे अपर्णा ने गाढ़े रंगों से रंगा है. जो परिदृश्य में नहीं होता वही उसकी सीमा को लांघ भी जाता है. इस तर्ज पर ‘टाइम इमेज’ में पानी में आधे से ज्यादा डूबी पांच स्त्रियां उसी स्पेस का बोध करा रही हैं जो उम्र से जुड़ा है, परिस्थितियों के कारण बना है और इतना मौन है कि उसका शोर हृदय चीर रहा है.

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सफेद उजाड़ उदासी में डूबी ये स्त्रियां संसार के सबसे वीभत्स दुख का भी स्मरण करा सकती हैं. बेचैन करने वाले ऐसे दृश्य पूजा स्थलों के फर्श पर पड़े फूल समान लगते हैं जिन्हें ईश्वर को मन्नतों के बदले अर्पित तो कर दिया जाता है लेकिन उन्हें उसी भूमि पर त्याज्य भाव से छोड़ भी दिया जाता है. यह पुष्पों (मानव-संवेदनाओं) की अंतिम परिणीति है और यही इनका अभिसार है.

5.

प्रेम अपने पूर्वजन्म की स्मृतियां साथ लेकर आता है और साथ लेकर लौट जाता है. उसी तरह मेघ की भी स्मृति होती है और जल की भी, वृक्ष की भी और निष्ठा की भी. हम स्मृतियों के जल का वर्तमान भी होते हैं, भूत भी और भविष्य भी.

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अपर्णा के बनाए चित्र देखकर कोई न कोई स्मृति आकार लेने लगती है. जैसे कोई वस्तु या कोई विचार एक अनंत नींद से अचानक जाग गया हो और यथार्थ में आकर सहमा हुआ अपने आस-पास को देख रहा हो, उसे महसूस करने की क्षमता को विकसित कर रहा हो. अपर्णा के बनाए खूबसूरत चित्रों की यात्रा एक लंबी कहानी सी प्रतीत हुई और ‘लव बियॉन्ड मेजर्स’ तक आते-आते मैंने यह महसूस कर लिया था रंगों का भी अपना संगीत होता है. कला को मापने के कोई पैमाना नहीं होता, वह बस ‘घटित’ हो जाती है. प्रेम के लिए भी किसी पैमाने की दरकार नहीं होती. प्रेम ‘अनुपस्थित’ में ‘उपस्थित’ की वेदना का साक्षी होता है. इस चित्र में घड़े से बहते जल का नीला रंग ही सब कुछ कह देता है जिसे स्त्री की आंखों की अनिश्चितता ने सुन लिया और उसे जल की भाषा डिकोड करती है.

अंततः सब बह जाता है. उस बहाव में एक गूंज शेष रह जाती है. लगता है हम उसी गूंज की संतानें हैं.

पूनम अरोड़ा ‘कामनाहीन पत्ता’ और ‘नीला आईना’ की लेखिका हैं. उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिक्की यंग अचीवर, और सनातन संगीत संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.



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