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ग्रीन की जगह येलो सिग्नल से क्यों चलती है ट्रेन? समझें कैसे काम करता है रेलवे का ट्रैफिक सिस्टम




नई दिल्ली:

इंडियन रेलवे (Indian Railway) का देशभर में करीब 68 हजार किलोमीटर लंबा नेटवर्क है. ऐसे में ट्रेनों को सही तरीके से ऑपरेट करने के लिए रेलवे ट्रैक (Railway Track) पर लगे सिग्‍नल और संकेतों का अहम योगदान होता है. सिग्नल अगर सही न दिया जाए या सही सिग्नल को गलत समझ लिया जाए, तो ट्रेन हादसे का शिकार हो सकती है. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में 17 जून की सुबह कंचनजंगा एक्सप्रेस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था. एक मालगाड़ी ने कंचनजंगा एक्सप्रेस (13174) को पीछे से टक्कर मार दी थी. हादसे में 10 लोगों की मौत हो गई है. रिपोर्ट में सामने आया कि ऑटोमेटिक सिग्नलिंग सिस्टम खराब था. आइए जानते हैं रेलवे का ट्रैफिक सिस्टम कैसे काम करता है? रेलवे के अलग-अलग सिग्नल का क्या मतलब होता है?

स्टेशन मास्टर देता है होम सिग्नल
कई बार ऐसा होता है कि ट्रेन किसी बड़े स्टेशन से गुजर रही हो, तो उसे धीमा कर दिया जाता है. कई बार वह फुल स्पीड से ही प्लेटफॉर्म पार करती है. इसमें पूरी तरह से सिग्नल का रोल रहता है. स्टेशन से पहले जो सिग्नल होता है उसे ‘होम सिग्नल’ कहा जाता है. यहीं से ट्रेन के ड्राइवर को पता चलता है कि ट्रेन सीधे तेजी से निकलेगी या फिर धीमी होगी. आपको जानकार हैरानी होगा कि ये सिग्नल देने का काम मैनुअली किया जाता है. यानी सिग्नल पर जो लाइट ऑन होगी, उसे स्टेशन मास्टर खुद अपने केबिन से करेगा. इसके अलावा बाकी सभी सिग्नल ऑटोमेटिक तरीके से ऑपरेट किए जाते हैं.

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4 तरह की होती है होम सिग्नल की लाइट
होम सिग्नल पर रेड, यलो, ग्रीन और व्हाइट 4 तरह की लाइट होती है. रेड लाइट का मतलब जाहिर तौर पर रुकने का इशारा है. हरी लाइट का मतलब है कि ट्रेन मेन लाइन से बगैर गति को धीमा किए प्लेटफॉर्म पार कर सकती है. जबकि यलो लाइट से पता चलता है कि लोको पायलट को ट्रेन की स्पीड कम करने को कहा गया है.

रेलवे में यलो सिग्नल का होता है खास मतलब
सड़क के ट्रैफिक सिग्नल से ट्रेन के ट्रैफिक सिग्नल में कुछ फर्क होता है. सड़क पर लगे ट्रैफिक सिग्नल में रेड लाइट का मतलब रुकना होता है. जबकि ग्रीन लाइट का मतलब आगे बढ़ना. येलो लाइट आगे बढ़ने के लिए तैयार रहने का संकेत देती है. लेकिन, ट्रेन के मामले में ग्रीन सिग्नल होने पर ही गाड़ी आगे बढ़ती है. वहीं, कई बार येलो सिग्‍नल देकर भी गाड़ी को आगे बढ़ाया जाता है. 

स्‍टार्टर सिग्नल और डबल यलो सिग्‍नल
लोको पायलट के लिए येलो सिग्‍नल का मतलब होता है कि स्‍टेशन पर खड़ी गाड़ी को स्‍टार्ट करके आगे मेन लाइन की ओर ले जाएं. ऐसा प्‍लेटफॉर्म पर पीछे से आ रही दूसरी गाड़ी को जगह देने के लिए किया जाता है. ट्रेन जब स्टेशन की लूप लाइन पर खड़ी होती है, तब यह सिग्‍नल दिया जाता है. लूप लाइन पर लगा सिग्‍नल स्‍टार्टर सिग्‍नल कहलाता है. कई बार इसके लिए डबल येलो सिग्‍नल भी दिखा दिया जाता है. जिसे देखने के बाद लोको पायलट गाड़ी को धीरे-धीरे खिसकाकर मेन लाइन की ओर लेकर जाता है. 

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लूप लाइन पर लगे स्‍टाटर सिग्‍नल में ग्रीन लाइट नहीं होती है, इसमें सिर्फ रेड और येलो लाइट होती है. लूप लाइन पर ट्रेन की स्पीड लिमिट 30 किमी/घंटा से ज्‍यादा नहीं होती है. 

व्हाइट लाइट का क्या है मतलब?
रेलवे के लिए व्हाइट लाइट बाकी तीन लाइटों से कुछ तिरछी लगी होती है. इसे हमेशा पीले रंग की लाइट के साथ ही ऑन किया जाता है. यह लाइट उन स्टेशन पर ऑन की जाती है, जहां कई प्लेटफॉर्म हों. इससे लोको पायलट को यह संकेत मिलता है कि ट्रेन को किस लाइन से स्टेशन पर एंट्री करानी है.

भारतीय रेलवे नेटवर्क में ट्रेन ट्रैफिक को कैसे किया जाता है मैनेज?
भारतीय रेलवे में सेंट्रलाइज्ड ट्रैफिक कंट्रोल (CTC) सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है. यह सिस्टम सबसे पहले 1966 में नार्थ ईस्टर्न रेलवे की गोरखपुर-छपरा सेक्शन में लगाया गया था. इसके बाद से ट्रेन ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम में कई बार टेक्नोलॉजिकल एडवांसमेंट किए गए हैं, ताकि ट्रेन का सही तरीके से ऑपरेशन किया जा सके. रेलवे का मौजूदा सेंट्रलाइज्ड ट्रैफिक कंट्रोल इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग और ऑप्टिकल फाइबर कम्युनिकेशन केबल पर बेस्ड है.

सिग्नलिंग सिस्टम में खराबी आ जाए तो?
जब सिग्नलिंग सिस्टम में खराबी आती है, तो स्टेशन मास्टर TA-912 रिटन अथॉरिटी जारी करता है. यह लोको पायलट को सिग्नलिंग सिस्टम में खराबी के कारण सभी रेड सिग्नल पार करने की परमिशन देता है. रेलवे के नियम के मुताबिक, लोको पायलट को हर डिफेक्टिव सिग्नल पर एक मिनट के लिए ट्रेन को रोकना चाहिए. इस दौरान ट्रेन की स्पीड भी 10 किमी प्रति घंटे की होनी चाहिए.

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