कैसे काम करती है डार्क वेब की दुनिया? NEET और NET पेपर लीक मामले में आया है जिक्र
नई दिल्ली :
नीट पेपर धांधली को लेकर पूरे देश में पिछले कई दिनों से हल्ला मचा हुआ है. सड़क से लेकर संसद तक इस मामले की गूंज सुनाई दे रही है. नीट और नेट पेपर लीक के मामले की जांच के दौरान डार्क वेब का जिक्र भी आया. आखिर यह डार्क वेब है क्या और यह तकनीक काम कैसे करती है? क्यों गैर कानूनी कामों के लिए डार्क वेब का इस्तेमाल होता है और क्या इसको ट्रैक किया जा सकता है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए हमारे संवाददाता प्रभाकर ने आईटी एक्सपर्ट के जरिए डार्क वेब की इस काली दुनिया के पूरे कायदे को देखा तो आप भी समझिए डार्क वेब की अंधेरी दुनिया को.
नीट पेपर ली घोटाले में दो शब्द बार-बार सुनने को मिले टेलीग्राम और डार्क वेब. संगठित गिरोह ने नीट पेपर घोटाले को अंजाम देने के लिए इन्हीं दोनों माध्यम का इस्तेमाल किया.
डार्क वेब में सेव नहीं होती है हिस्ट्री
आईटी प्रोफेशनल नीरज श्रीवास्तव ने बताया कि डार्क वेब मूलरूप से दो चीजों को मिलाकर बनता है. एक है टीओआर ब्राउजर और दूसरा है ओनियन नेटवर्क. टीओआर ब्राउजर हिस्ट्री सेव नहीं करता है और उसके साथ जो ब्राउजर है उसका आमतौर पर पी टू पी कम्युनिकेशन के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसमें ओनियन शेयर एक यूटिलिटी है जिसके तहत हम एक नेटवर्क पर कनेक्ट करते हैं और जब हम नेटवर्क पर कनेक्ट करते हैं तो ये बहुत सारे राउटर को यूज करता है और इसमें पियर टू पियर मतलब पर्सन टू पर्सन अगर हम कोई फाइल शेयर कर रहे हैं तो उसमें कोई सेंट्रल सर्वर शामिल नहीं होता है.
… तो इसलिए ट्रेस नहीं होती है कम्युनिकेशन
उदाहरण के लिए हम वॉटसएप किसी को भेजते हैं तो वॉटसएप का एक सर्वर है. फेसबुक का मैसेज भेजते हैं या जीएसएम मैसेज भी भेजते हैं तो इसमें एक सर्विस प्रोवाइडर इनवोल्व रहता है, जिसे सेंट्रल सर्वर कहा जाता है. हालांकि ओनियन शेयर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि यह बेहद जटिल नेटवर्क है, जो इंक्रिप्शन को यूज करता है, जिसमें फिक्स सैट ऑफ राउटर नहीं है, जिसमें यह ट्रैवल कम्युनिकेट होगा. इसका इस्तेमाल चार चीजों के लिए किया जा सकता है. एक फाइल को शेयर करने के लिए, फाइल को रिसीव करने के लिए, वेबसाइट होस्ट करने के लिए और किसी से बातचीत के लिए. जैसे किसी से बात करनी है या फाइल शेयर करनी है, जिसमें कोई भी सेंट्रल सर्वर शामिल नहीं है. इसलिए इसमें कम्युनिकेशन ट्रेस नहीं होती है. यह भी पता नहीं लग सकेगा कि इसे कहां से भेजा गया है. हो सकता है कि यह कहीं और के सर्वर से रूट होकर आपके पास तक पहुंच रहा हो.
कम्युनिकेशन को ट्रैक करने का तंत्र नहीं : श्रीवास्तव
श्रीवास्तव ने कहा कि हमें कोई फाइल शेयर करनी है तो पहले हमें एड फाइल करना होगा और स्टार्ट शेयरिंग करना होगा. यह एक प्राइवेट की और एक यूआरएल जनरेट करता है. उस यूआरएल पर आप जाएंगे. इसका नेटवर्क कॉम्प्लिकेटेड होता है और ये ब्राउजर थोड़ा स्लो चलता है. इसलिए आपको थोड़ा पेशेंस रखना पड़ेगा. जैसे ही शेयरिंग स्टार्ट होगी वो एक यूआरएल आपको जनरेट करेगा और एक की जनरेट करेगा, जिसको कि हम क्यूआर कोड में भी कन्वर्ट कर सकते हैं. आमतौर पर लोग इसे टीओआर ब्राउजर पर यूज करते हैं. अगर ओनियन शेयर से फाइल भेजनी है तो जिस आदमी के पास यूआरएल और प्राइवेट की है तो वो इसे आसानी से एक्सेस कर सकता है.
उन्होंने कहा कि अभी हमारे पास कोई ऐसा तंत्र मौजूद नहीं है जो इस कम्युनिकेशन को ट्रैक कर सके. यह किस सर्वर से आ रहा है, यह भी पता नहीं चलता है.
शुरुआत में पत्रकारों और व्हिसल ब्लोअर्स ने किया इस्तेमाल
डार्क वेब का इस्तेमाल शुरू में जर्नलिस्ट और व्हिसल ब्लोअर्स ने ज्यादा किया. हालांकि अब ड्रग्स और हथियारों की ऑनलाइन सेल जैसे गैर कानूनी कामों के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. यह एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म लोगों को देता है जिसमें हम लोग यह ट्रैक नहीं कर सकते हैं कि रिक्वेस्ट किस जगह और किस आईपी एड्रेस से आई हे.
उन्होंने कहा कि यदि शेयरिंग फाइल को आप एक से ज्यादा लोगों को दे देंगे तो वो सारे लोग उस फाइल को एक्सेस कर सकते हैं. इसमें एक ऑप्शन होता है चैट एनोनिमस. मान लीजिए कि एक यूआरएल आपने अपने पांच मित्रों को दिया है तो पांचों जो है वो आपस में बात कर सकते हैं जिसकी कोई ट्रैकिंग नहीं है और जैसे यह ब्राउजर आप बंद करेंगे तो उसके बाद उसकी हिस्ट्री बाय डिफॉल्ट ही खत्म हो जाती है और किस राउटर से किन लोगों ने इस पर चैट किया यह भी हमें पता नहीं चलेगा.
डार्क वेब की सच्चाई का ऐसे लग सकता है पता
उन्होंने डार्क वेब को लेकर कहा कि यह डार्क वेब पर जाकर पता करने के लिए कि आखिर इसके पीछे कौन था. इसके लिए दो तरीके हैं. एक है कि डार्क वेब के मेंबर बने और दूसरा है कि अपना मालवेयर बनाए. मालवेयर एक छोटा सा प्रोग्राम होता है, जो इसे बना रहा है वो ट्रैक कर सकता है कि किस जगह से हमारे पास रिक्वेस्ट आई और इसे कां से रेस्पोंस मिला है. ये तभी हो सकता है जब जांच एजेंसी पहले से उस प्लेटफॉर्म पर मौजूद हो.
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