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उत्तराखंड ट्रेकिंग ट्रेजडी की भयावह कहानी


कर्नाटक माउंटेनियरिंग एसोसिएशन (केएमए) के सचिव एस श्रीवास्तव ने देहरादून के एक अस्पताल के दृश्य को याद करते हुए कहा कि उत्तराखंड में ‘ट्रेकिंग’ त्रासदी में जीवित बचे पर्वतारोही अपने साथियों के शवों के साथ 36 घंटे तक बैठे रहे थे. श्रीवास्तव ने उत्तराखंड में नौ अनुभवी ‘ट्रेकरों’ की मौत हो जाने पर यह भी कहा कि यदि मौसम खराब नहीं हुआ होता तो वे सभी जीवित होते और सकुशल घर लौट आते. पर्वतारोहण संघ के 22 सदस्यों की एक टीम ने 29 मई को उत्तरकाशी से 35 किलोमीटर की ‘ट्रेकिंग’ शुरू की थी लेकिन खराब मौसम के कारण उनमें से नौ की जान चली गई, जबकि 13 को उत्तराखंड और कर्नाटक सरकार के एक समन्वित अभियान में बचा लिया गया.

श्रीवास्तव ने कहा, ‘‘यह घटना खराब मौसम के कारण हुई. वे सभी प्रशिक्षित और अनुभवी पर्वतारोही थे. यह बहुत दुर्गम क्षेत्र भी नहीं था. यह क्षेत्र किसी भी व्यक्ति के लिए सुगम्य था, चूंकि मौसम बहुत खराब था, वे फंस गये और अत्यधिक सर्द मौसम की चपेट में आने से उनके शरीर का तापमान काफी कम हो गया था. यह खराब मौसम के कारण हुआ, अन्यथा वे सभी जीवित होते.”

मृतकों में 71 वर्षीय आशा सुधाकर भी शामिल हैं, जो तीन दशक से केएम की सदस्य थीं और राज्य की सबसे उम्रदराज पर्वतारोहियों में एक थीं.

केएमए ने कहा कि उन्होंने अपने पति एस सुधाकर के साथ अतीत में इस तरह का कई पर्वतारोहण किया है. सुधाकर इस टीम का नेतृत्व कर रहे थे और वह इस आपदा में बच गए.

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टीम में सभी अनुभवी पर्वतारोही और ट्रेकर थे : श्रीवास्‍तव 

श्रीवास्तव ने कहा, ‘‘उम्र कोई समस्या नहीं है. आशा एक अनुभवी पर्वतारोही थीं. इस टीम में पर्वतारोही और ट्रेकर शामिल थे. वे सभी अनुभवी थे.”

उन्होंने कहा कि समूह में 34 से 71 वर्ष आयु के शारीरिक रूप से स्वस्थ, अनुभवी ट्रेकर थे.

घटना के वक्त श्रीवास्तव खुद नेपाल में एवरेस्ट आधार शिविर में थे और बचाव अभियान में समन्वय के लिए देहरादून पहुंचे.

उन्होंने बताया, ‘‘जब मैंने उनसे बातचीत की, तो उन लोगों ने बताया कि तेज हवा के कारण उनके विंडचीटर, जैकेट और दस्ताने उड़ रहे थे और दृश्यता शून्य थी. इसलिए उन्होंने एक चट्टान की आड़ ली, लेकिन थकावट, हाइपोथर्मिया (शरीर का तापमान घटना) और पर्याप्त ऑक्सीजन की कमी के कारण उनमें से चार की मौत हो गई. बाद में पांच अन्य की भी जान चली गई.”

उन्होंने बताया, ‘‘उनके पास भोजन था लेकिन वे खा नहीं सकते थे क्योंकि तेज हवा के बीच वे टिफिन बॉक्स नहीं खोल पा रहे थे.”

श्रीवास्तव ने कहा कि बाद में निचले स्थान के शिविर से, एक गाइड और अन्य पर्वतारोहियों ने ‘स्लीपिंग बैग’ के साथ दो और तंबू भेजे और एक रसोइया ने उन्हें कुछ गर्म पानी दिया. इस मदद से, (उनमें से बाकी लोग) बच गए. अन्यथा, उनकी भी जान चली जाती.”

वे सदमे से पूरी तरह से टूट गए थे : श्रीवास्‍तव 

अस्पताल में जो कुछ उन्होंने देखा, उसे याद करते हुए श्रीवास्तव ने कहा, ‘‘वे पूरी तरह सदमे में थे, टूट गए थे और उदास थे. उनमें से कुछ लोग अपनी टीम के सदस्यों के शवों के साथ लगभग 36 घंटे तक बैठे रहे, यह निराशाजनक था.” उन्होंने कहा कि यह त्रासदी तैयारी की कमी के कारण नहीं हुई.

उन्होंने कहा कि पर्वतारोहण का यह कार्यक्रम 29 मई से आठ जून तक के लिए था और टीम को आठ जून को बेंगलुरु लौटना था.

पीटीआई-भाषा ने जीवित बचे हुए लोगों में से कुछ से जब संपर्क किया, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इससे उबरने के लिए समय चाहिए. जीवित बचे लोगों में से एक ने कहा, ‘‘हम अभी भी सदमे में हैं. हम सरकार के प्रयासों के लिए उनके आभारी हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, हमने इस त्रासदी में अपने कुछ दोस्तों को खो दिया.  हमें इससे उबरने के लिए समय चाहिए.”

सभी नौ शवों को यहां लाने के बाद अंत्येष्टि के लिए उनके परिजनों को सौंप दिया गया है.

Uttarakhand tragedy

लोकप्रियता को देखते हुए जागरूकता पैदा करना है उपाय 

इस बीच, बेंगलुरु के पर्वतारोहण विशेषज्ञों ने कहा कि अक्सर लोग पर्वत चोटियों और घाटियों, नदियों और झरनों की सुंदर तस्वीरों और वीडियो से आकर्षित होकर, बिना किसी सही जानकारी के सामूहिक रूप से ‘ट्रेकिंग’ पर निकल पड़ते हैं.

विशेषज्ञों ने कहा कि समस्या यह है कि लोग ऑनलाइन जो कुछ देखते हैं, उससे उत्साहित होकर रातों-रात पर्वत चोटियों पर चढ़ना चाहते हैं, वे शायद ही कभी यह जानने के लिए रुकते हैं कि क्या वे चुनौतीपूर्ण ट्रेक से निपटने के लिए जरूरत की सभी चीजों से लैस हैं, जिसके परिणामस्वरूप हाल ही में उत्तराखंड ट्रेकिंग त्रासदी जैसी घटनाएं हुईं.

बेंगलोर माउंटेनरिंग क्लब 20 वर्ष से संचालित कर रहे क्लेमेंट डोमिनिक ने कहा कि पिछले दो-तीन वर्षों में ट्रेकिंग करने की इच्छा रखने वाले बेंगलुरुवासियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है.

विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रेकिंग की लोकप्रियता को देखते हुए जागरूकता पैदा करना ही एकमात्र उपाय है.

आईटी पेशेवर एवं पर्वतारोहण का 20 से अधिक वर्षों का अनुभव रखने वाले संतोष कुमार गुप्ता ने कहा, ‘‘ट्रेकिंग करने वालों को स्थानीय लोगों की मदद लेनी चाहिए और जब उन्हें कोई जानकारी दे तो उसे ध्यान से सुनना चाहिए.”

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(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)



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