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आमिर खान के बेटे जुनैद की डेब्यू फिल्म महाराज का रास्ता साफ, गुजरात हाईकोर्ट ने दिया ग्रीन सिग्नल




नई दिल्ली:

आमिर खान के बेटे जुनैद खान की डेब्यू फिल्म ‘महाराज’ पर जो मुश्किलों के बादल छाए थे वो हटते नजर आा रहे हैं. खबर है कि  गुजरात होईकोर्ट ने बॉलीवुड एक्टर जुनैद की पहली फिल्म ‘महाराज’ की ओटीटी रिलीज पर लगी रोक हटा दी है. ये यकीनन फिल्म मेकर्स, जुनैद खान और नेटफ्लिक्स के लिए राहत की खबर होगी. पिछले कई दिनों से इस फिल्म को लेकर विवाद चल रहा था. पहले ये फिल्म 14 जून को रिलीज होने जा रही थी लेकिन फिल्म की रिलीज से ऐन पहले इस पर रोक लगा दी गई. 

गुजरात उच्च न्यायालय ने शुक्रवार (21 जून) को स्ट्रीमिंग दिग्गज नेटफ्लिक्स की फिल्म ‘महाराज’ की रिलीज पर लगाई गई अपनी अस्थायी रोक हटा ली. न्यायालय ने कहा कि फिल्म महाराज 1862 के महाराज मानहानि मामले से जुड़ी घटनाओं पर आधारित है और इसका उद्देश्य किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है. न्यायमूर्ति संगीता के.विसेन जिन्होंने 13 जून को फिल्म की रिलीज पर रोक लगाई थी ने फिल्म देखने के बाद शुक्रवार को नेटफ्लिक्स को फिल्म स्ट्रीम करने की अनुमति देने का फैसला किया. न्यायालय ने कहा, “यह न्यायालय प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि फिल्म महाराज उन घटनाओं पर आधारित है जिनके कारण मानहानि का मामला दायर किया गया और इसका उद्देश्य किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है. फिल्म को संबंधित दिशा-निर्देशों पर विचार करने के बाद विशेषज्ञ निकाय केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया गया था.” 

मूल रूप से 14 तारीख को रिलीज होने वाली इस फिल्म पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी. ऐसा इसलिए क्योंकि व्यापारियों के एक समूह ने इस आधार पर कोर्ट में याचिका दायर की थी कि इसमें वैष्णव समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की क्षमता है. फिल्म महाराज गुजराती लेखक सौरभ शाह की 2013 की किताब पर आधारित है जो 1862 के ऐतिहासिक मानहानि मामले पर आधारित है जो एक प्रमुख वैष्णव व्यक्ति जदुनाथजी द्वारा समाज सुधारक करसनदास मुलजी के खिलाफ दायर किया गया था जिन्होंने सर्वशक्तिमान महाराज द्वारा यौन शोषण के खिलाफ लिखा था.

मुलजी ने अपनी पत्रिका सत्यप्रकाश में शोषणकारी प्रथा का खुलासा किया जिसके कारण मानहानि का मामला चला. यह प्रसिद्ध महाराज मानहानि मामला बन गया. न्यायमूर्ति विसेन ने कहा कि याचिकाकर्ताओं की प्राथमिक शिकायत कि फिल्म वैष्णव समुदाय को बदनाम करती है और उसका अपमान करती है, में कोई दम नहीं है. “इस प्रकार उनकी अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बाध्य है कि याचिकाकर्ताओं की आशंका अनुमानों पर आधारित है. चूंकि फिल्म को अभी सार्वजनिक रूप से देखने के लिए जारी नहीं किया गया है इसलिए केवल अनुमान के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित नहीं किया जा सकता है.” अदालत ने कहा. “फिल्म का मुख्य संदेश जैसा कि प्रतिवादी ने सही कहा है यह है कि फिल्म सामाजिक बुराई और करसनदास मुलजी द्वारा सामाजिक सुधार के लिए लड़ाई पर केंद्रित है जो स्वयं वैष्णव समुदाय से थे.” 

उन्होंने कहा, “फिल्म किसी भी तरह से धार्मिक भावनाओं को प्रभावित या आहत नहीं करती है. फिल्म यह निष्कर्ष निकालती है कि संप्रदाय किसी भी व्यक्ति या घटना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. इस घटना को अपवाद मानते हुए वैष्णव संप्रदाय और उसके अनुयायी बढ़ते रहे और भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने का गौरवपूर्ण और अभिन्न अंग बने रहे. यह आशंका जताई जा रही है कि इससे सांप्रदायिक विद्वेष पैदा होने की संभावना है. हालांकि उसी मानहानि मामले के आधार पर 2013 में पुस्तक प्रकाशित हुई थी और किसी घटना की सूचना नहीं दी गई है. उन्होंने कहा, “यहां तक ​​कि याचिकाकर्ताओं ने भी जानकारी नहीं दी कि पुस्तक से सांप्रदायिक विद्वेष पैदा हुआ है.”




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